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यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति )
(१९१ पुस्तक में बताये “आत्मा के स्वभाव को पहिचानने की विधि” शीर्षक विषय के अन्तर्गत विस्तार से पढ़ चुके हैं। वहाँ से समझ लेना चहिये।
मार्ग निश्चित करने के लिये, संक्षेप से समझा जावे तो, जो राग द्वेष हमारे में विद्यमान है, उनका सिद्ध भगवान की आत्मा में अभाव है। राग-द्वेष का अभाव होते ही उनका ज्ञान भी पूर्ण विकास को प्राप्त हो गया। क्योंकि जिन पदार्थों को ज्ञान जानता था, उनके प्रति राग-द्वेष करने पर वह ज्ञान उतने में ही सीमित हो जाने से उसका विकास कुंठित हो जाता था, सिद्ध की आत्मा को रागादि का अभाव हो जाने से, ज्ञान पूर्ण विकास को प्राप्त होकर प्रगट हो गया। अत: जानने को कुछ शेष ही नहीं रह गया। इसलिए जानने संबंधी इच्छाओं का भी अभाव हो गया तथा जाने हुए पदार्थों में भी किसी के प्रति राग अथवा द्वेष का भी अभाव हो जाने से आकुलता उत्पन्न होने के कारणों का ही अभाव हो गया फलतः वे परमसुखी हैं।
___ इससे विपरीत हमारी आत्मा तो राग-द्वेषादि भावों का ही उत्पादन करती रहती है, फलत: हमारा ज्ञान भी कुंठित रहता है और नहीं जाने पदार्थों को जानने तथा राग वाले पदार्थों को भोगने की एवा द्वेष वाले पदार्थों का अभाव करने की आकुलता को भोगते हुए ही, दुर्लभता से प्राप्त इस मनुष्य जीवन को निष्फल ही खो देता है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि ज्ञान के विकास को कुंठित करने का कारण एवं आकुलता के उत्पादन का भी कारण, एकमात्र राग-द्वेषादि भाव ही है। अत: हमको सिद्ध बनने के लिए इन राग-द्वेषादि भावों के उत्पादक कारणों का ही अभाव करना होगा।
समस्त विवेचन से सिद्ध होता है कि वीतरागता प्रगट करने का उपाय ही एकमात्र मोक्ष का सत्यार्थमार्ग हो सकता है। अत: हमको सिद्ध
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