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यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि योग्य रुचि की उत्पत्ति )
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के विषय अत्यन्त गौण होकर, एकमात्र आत्मा को प्राप्तकरने की रुचि सर्वोपरि प्रवर्तने लगती है। अर्थात् ऐसे आत्मार्थी की, पूर्व दशा में जो रुचि, संसार देह-भोगों के प्रति दौड़-दौड़कर जाती थी, वह अब उस ओर से विमुख होकर आत्मसाधना के मार्ग को सफल बनाने की ओर अग्रसर हो जाती है । इसप्रकार आत्मार्थी का जीवन सहज रूप से ज्ञान के साथ-साथ वैराग्यमय हो जाता है। ज्ञानी को इस प्रकार की अन्तस्थिति सहजरूप से वर्तती रहती है, वह बनाने से नहीं बनती तथा दूसरों को प्रदर्शन करने अथवा जानकारी कराने की भी ज्ञानी को किंचित्मात्र भी अपेक्षा नहीं रहती वरन् उपेक्षा वर्तने लगती है। उसकी रुचि का केन्द्रीय- करण तो एक मात्र आत्मसाधना बन जाता है और उसी को सफल करने के लिए ही निरन्तर प्रयासरत रहता है। फलस्वरूप श्रावक के षट्कर्म - देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान आदि के भाव तो सहज रूप से वर्तन लगते हैं। क्योंकि ज्ञानी तो अपने उपयोग को आत्मसाधना के सहकारीकरणों में ही उलझाये रखना चाहता है, ताकि आत्मा की रुचि को प्रोत्साहन मिलता रहे, अन्यथा वह रुचि मंद अर्थात् ढीली पड़ जाने से, उसका अभाव होकर संसार-देह भोगों के प्रति आकर्षित होने की संभावना का भय बना रहता है।।
इसप्रकार की रुचि की उग्रता हुए बिना, जो उपयोग आत्मा के अतिरिक्त अन्य ज्ञेयों में ही, सुख की खोज के लिए, मारा-मारा फिरता था, वह उस तरफ से हटकर आत्मा के सन्मुख कार्यशील कैसे हो सकेगा। अत: इस प्रकार की रुचि को उत्पन्न होने का श्रेय एकमात्र यथार्थ समझपूर्वक निःशंक निर्णय को ही है।
यथार्थ समझ की पहिचान क्या ? प्रश्न :- उपरोक्त प्रकार की रुचि के उत्पादन का मूल कारण तो आपने मुक्ति मार्ग समझने में यथार्थ मार्ग ढूँढ निकालकर, उसकी यथार्थता
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