SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय परिचय ) (१७ जो कुछ भी है उस सबको एक समय मात्र में ही जान रहे हैं। लेकिन सबको जानते हुए भी, अपनी स्वयं की एवं पर की पर्याय में, कुछ भी कर नहीं सकते, अन्य की तो बात ही क्या? केवलज्ञान के साथ ही उनमें तो अनन्तबल प्रगट हो गया, फिर अरहंत भगवान अपनी ही अघातिया कर्मों से संबंधित प्रकृतियों का अभाव करके, मुक्ति प्राप्त क्यों नहीं कर लेते? जब वे अपनी ही पर्याय में कुछ नहीं कर सके तो, मेरा आत्मा, अन्य की पर्याय में कुछ भी कर सकेगा, ऐसा मानना कितना बड़ा अज्ञान है। भगवान अरहंत की आत्मा के दृष्टान्त के द्वारा, कर्ताबुद्धि का अभाव होकर ज्ञाताबुद्धि उत्पन्न करने का महान पुरुषार्थ जाग्रत होता है । इसप्रकार की श्रद्धा जाग्रत हो जाने पर भी हमारे ज्ञान में परपदार्थ तथा हमारी पर्यायें भी ज्ञेय के रूप में ज्ञात होंगी। अत: उन ज्ञेयों से, ज्ञायकस्वभावी त्रिकाली तत्त्व का, भेदज्ञान उत्पन्न करने के लिये, द्रव्यार्थिक - पर्यायर्थिक नयों का यथार्थ स्वरूप समझना अत्यन्त उपयोगी है । उसको समझकर, द्रव्यार्थिक नय के विषयभूत स्वज्ञेयतत्त्व त्रिकाली ज्ञायकभाव में, अहंपना स्थापन करके, उसमें ही उपयोग को एकत्व करने का पुरुषार्थ यथार्थ है, अत: पर्यायार्थिकनय के विषयभूत जो भी हों, पर्याय हों, द्रव्य हों, गुण हों, अथवा अन्य कोई भी हों, सभी में परपना मानकर उसकी ओर से उपेक्षित बुद्धि उत्पन्न करना मुख्य कर्तव्य है। उन सब उपायों की चर्चा इस भाग-३ में की गई है। इस ही का विस्तार, 'द्रव्यदृष्टि सम्यग्दृष्टि एवं पर्यायदृष्टि मिथ्यादृष्टि' के रूप में जिनवाणी में आया है। उक्त प्रकार के पुरुषार्थ के लिये मात्र अतीन्द्रिय ज्ञान ही उपयोगी है, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान का विषय तो पर ही होता है, इन्द्रिय ज्ञान में मनजनित ज्ञान भी सम्मिलित है। अत: एकमात्र अतीन्द्रिय ज्ञान ही निराकुलता का जनक व उपादेय है। इन्द्रियज्ञान तो आकुलता का उत्पादक होने से हेय ही है । इस विषय पर भी सांगोपांग विवेचन उक्त भाग-३ में किया गया है। आत्मा को सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी एक समय में ही अपनी परिणति में, आंशिक वीतरागता एवं आंशिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy