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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
उपरोक्त प्रकार के विचारों द्वारा, आत्मा प्राप्त करने की मान्यता से तो कर्ताबुद्धि का ही पोषण हुआ। विचारों की व्यग्रता करने का ही अभिप्राय रहा। यथार्थ समझ के द्वारा यथार्थ श्रद्धा जाग्रत होने से तो कर्ताबुद्धि के अभावपूर्वक करने-धरने का उत्साह भी विसर्जन हो जाता है और आत्मा निर्भार होकर उपयोग में सिमट जाने के लिये प्रयत्नशील हो जाता है।
आत्मा का स्वभाव तो अकर्ता था, लेकिन इसने आत्मा को कर्ता स्वभावी मान लिया। कर्तापने और ज्ञातापने में अत्यन्त विपरीतता है। ज्ञाता कभी कर्ता नहीं हो सकता और कर्ता कभी ज्ञाता नहीं हो सकता? आत्मा का स्वभाव तो ज्ञायक, अकर्ता ही है। इसका प्रमाण भगवान अरहंत का आत्मा है। अत: उपरोक्त प्रकार की विपरीत मान्यता से आत्मानुभूति प्राप्त करने के समस्त प्रयास निष्फल ही रहते हैं। आत्मा का उपयोग तो मात्र जानने के स्वभाव वाला है, अज्ञानी उसको करने के स्वभाव वाला मानकर, उसको आज्ञा करता है कि तू आत्मा में जा? अत: उसकी आज्ञा कैसे सफल हो सकेगी?
भाग-३ का विषय इसप्रकार की भूल निकालने के लिये आत्मा का यथार्थ स्वरूप विस्तार से समझना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । इस पुस्तक के भाग-३ में इस ही का वर्णन है। भगवान अरहंत की आत्मा को आदर्श रूप में रखकर अर्थात् उदाहरण बनाकर प्रवचनसार की गाथा ८० के माध्यम से, अपने आत्मा के स्वरूप को शुद्ध १०० टंच के सुवर्ण के द्रष्टान्त के आधार से समझने का प्रयास किया गया है। भगवान अरहंत की आत्मा वर्तमान पर्याय में जैसी व्यक्त हो गई है वैसा ही मेरा भी स्वभाव है, अंतर नहीं है। वास्तव में मेरा भी स्वभाव तो शुद्ध स्वर्ण के समान सदैव उनके जैसा ही है, लेकिन वर्तमान पर्याय की व्यक्तता में ही अन्तर है। उनकी आत्मा वर्तमान में ही ज्ञायकता में परिपूर्ण है । जानने योग्य पदार्थ जितना
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