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ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान )
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सिद्ध करना है। लेकिन ज्ञेय से ज्ञान की भिन्नता सिद्ध करने के लिये इसकी उपरोक्त तीनों से भिन्न ही स्थिति है। क्योंकि ज्ञान आत्मा का एक गुण है और ज्ञेय तो पर है एवं ज्ञान में आते नहीं, अर्थात् ज्ञान में ज्ञेयों का अस्तित्व तो होता नहीं, फिर भी दोनों एक हो गये जैसे लगने लगते हैं। अत: उनमें परस्पर नास्तित्व सिद्ध करने की पद्धति उपरोक्त से भिन्न प्रकार की होनी चाहिए। इसलिए ज्ञान और ज्ञेयों में परस्पर भिन्नता सिद्ध करने के पूर्व, ज्ञेयों को जानने वाले ज्ञान की स्थिति क्या है, यह समझना है।
अनेकान्त स्वभावी ज्ञान की ज्ञेयों को जानने की स्थिति
अनेकान्त स्वभावी क्षयोपशम ज्ञान, हर समय हर एक पर्याय में “लब्ध और उपयोग” दो रूप में वर्तता है । इस ज्ञान की इतनी निर्बलता है कि प्रगट पर्याय की जितनी भी सामर्थ्य प्रगट हुई है, यह पूर्ण सामर्थ्य भी एक साथ कार्य करने में असमर्थ रहती है। अत: उसकी जितनी सामर्थ्य कार्यरूप परिणमती है, उसको ही “उपयोग" कहा गया है एवं बाकी सामर्थ्य प्रगट पर्याय में विद्यमान रहते हुए भी कार्यरूप नहीं परिणमती उसको “लब्ध” कहा गया है। आगम में “ज्ञान के व्यापार को उपयोग" कहा गया है। इसप्रकार अनेकान्त स्वभावी प्रगट ज्ञानपर्याय की स्थिति
मोक्षशास्त्र की श्री रामजीभाई माणकचंद जी दोशी की अध्याय २ के सूत्र १८ की टीका में निम्नप्रकार कहा है :
(१) लब्धि :- लब्धिका अर्थ प्राप्ति अथवा लाभ होता है। आत्मा के चैतन्य गुण का क्षयोपशमहेतुक विकास लब्धि है।
उपयोग :- चैतन्य के व्यापार को उपयोग कहते हैं। आत्मा के चैतन्य गुण का जो क्षयोपशमहेतुक विकास है उसके व्यापार को उपयोग
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