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(सुखी होने का उपाय भाग - ५ है और गुणों में भी गुणी की नास्ति है। इस ही आधार पर मेरी श्रद्धा का विषय अभेद अखण्ड आत्मा रह सकेगा, अन्यथा एकता में अनेकता की और अनेकता में एकता की अस्ति मानने से तो मेरी श्रद्धा के लिये कोई विषय ही नहीं रहेगा। फलत: गुणी ऐसे आत्मा में गुणों की नास्ति मानने से ही अभेद अखंड आत्मा ही मेरी श्रद्धा का श्रद्धेय रहेगा और उससे ही वीतरागता की उत्पत्ति हो सकेगी।
इसीप्रकार त्रिकाली सत्ताधारी द्रव्य में एक समयवर्ती पर्याय की नास्ति है और पर्याय में उक्त द्रव्य की नास्ति है। ऐसा स्वीकार करने से द्रव्य एवं पर्याय दोनों का अस्तित्व सुरक्षित रहता है, अन्यथा दोनों का ही अभाव हो जावेगा, लेकिन मेरी श्रद्धा का श्रद्धेय तो मात्र त्रिकाली सत्ताधारी द्रव्य ही रहता है। जिसके आश्रय से एक समय की सत्ताधारी पर्याय में मेरा अनादिकाल से चला आ रहा अहंपना समाप्त होकर, त्रिकाली ज्ञायक भाव में ही अहंपना स्थापन होकर, वह ही श्रद्धा का श्रद्धेय रह जाता है इसी को समयसार में शुद्धनय का विषयभूत आत्मा कहा है।
इसीप्रकार ज्ञेय ज्ञायक संबंध के विषय में भी समझना चाहिए। लेकिन उपरोक्त तीनों विषयों से ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की स्थिति कुछ भिन्न पड़ती है। वह निम्नप्रकार है:
सबसे पहला विषय, स्वद्रव्य में परद्रव्य की नास्ति का है तो इसमें तो दोनों द्रव्यों का अपने-अपने में अस्तित्व रहते हुए भी परस्पर अभाव सिद्ध करना है। दूसरे विषय में आत्मा के ही अनन्तगुण आत्मा में ही अभेदूरूप से विद्यमान रहते हुए भी गुणी और गुण में परस्पर नास्तित्व सिद्ध करना है। तीसरे में द्रव्य और पर्याय का एक ही द्रव्य में अभिन्न अस्तित्व होते हुए भी दोनों की नित्य-अनित्यात्मक सत्ता स्वतंत्र पूर्वक भिन्न-भिन्न रहती है उनकी आपस में अस्ति नास्तिपूर्वक स्वतंत्र अस्तित्व
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