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________________ १६८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ अनेकान्तात्मक है" इसप्रकार उपदेश करता है,क्योंकि समस्त वस्तु अनेकान्त स्वभाववाली है। “सर्व वस्तुएँ अनेकांत स्वरूप हैं" इसप्रकार जो स्याद्वाद कहता है सो वह असत्यार्थ कल्पना से नहीं कहता, परन्तु जैसा वस्तु का अनेकान्त स्वभाव है वैसा ही कहता है।" जैसे विश्व के एक अंश अर्थात एक वस्तु में विश्व की सकल वस्तुओं की नास्ति है और सुकल वस्तुओं में एक की नास्ति है तब तो विश्व, विश्वरूप रहेगा और विश्व का अंशरूप वस्तु का अस्तित्व भी सिद्ध होगा। इसीप्रकार मेरा आत्मा जो अपने आपका अस्तित्व रखता है। उसमें विश्व के सभी द्रव्यों की तथा अन्य आत्माओं की नास्ति हो, तब तो मेरा अस्तित्व बना रह सकेगा। इसप्रकार से मेरे आत्मा का अनेकान्त स्वभाव नहीं होता तो मेरा आत्मा तो सबमें मिल जाता और अपना अस्तित्व ही खो देता। इसप्रकार अनेकांतस्वभाव वस्तु का अस्तित्व सुरक्षित रखता है। इस ही के आधार से आचार्य श्री ने उपरोक्त परिशिष्ट में परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में, स्व आत्मा के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की नास्ति है और उन सबकी अपने-अपने चतुष्टय में अस्ति है लेकिन पर जितने भी हों उन सबकी अपने-अपने स्वचतुष्टय में अस्ति होते हुए भी मेरे स्व-चतुष्टय में तो नास्ति ही है। इसप्रकार मेरे को मेरेपने की श्रद्धा के लिये तो, मैं अकेला ही श्रद्धेय रह गया तब पर जो भी जितना भी है उन सबकी मेरे में नास्ति है, अत: उन सबसे ममत्व करने का कोई अवकाश ही नहीं रह जाता? फलत: ऐसी श्रद्धा ही वीतरागता की उत्पादक बन जाती है। परिशिष्ट के प्रारंभ का उक्त कथन इसप्रकार है : “यहाँ आत्मा नामक वस्तु को ज्ञानमात्रता के उपदेश करने पर स्याद्वाद का कोप नहीं है, क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के स्वयमेव For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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