SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान-ज्ञेय एवं भेद-विज्ञान) (१६७ धर्मात्मक है, कोई भी वस्तु ऐसी होती ही नहीं जिसमें अनंत स्वभाव विद्यमान नहीं हों। इसलिए प्रत्येक वस्तु अनन्त गुणों का अभेद अखंड पिंड है। ऐसी वस्तु एवं उसका परिणमन अनेकांत स्वभावी ही होता है। ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है। अनेकांत का अर्थ है, अनेक स्वभाव होते हुए भी एक स्वभाव में दूसरे स्वभाव का नास्तिरूप परिणमन होना। अनेकांत का स्वरूप आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव ने समयसार के परिशिष्ट में बताया है : “एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनकान्त है।" । उपरोक्त परिभाषा को आचार्यश्री ने वस्तु में बसे हुए परस्पर विरोधी अनन्त स्वभावों को अस्ति-नास्तिपूर्वक १४ बोलों के माध्यम से सिद्ध किया है कि प्रत्येक समय वस्तु में परस्पर विरोधी स्वभाव परिणमन करते रहने से ही वस्तु का वस्तुत्व टिका रहता है। ऐसा वस्तु का स्वभाव है। इसकी विशेष चर्चा ग्रंथराज समयसार से जाननी चाहिये। __ आत्मवस्तु अनेकान्त स्वभावी जब वस्तुओं का स्वभाव ही अनेकांतात्मक है तो विश्व की समस्त वस्तुऐं अर्थात् अनंतानन्त सभी द्रव्य अनेकान्त स्वभावी ही सिद्ध हो गये। अनेकान्त का प्रयोग वस्तु के अस्तिव को सिद्ध करने के लिए ही है। तथा ऐसी वस्तु का स्वरूप समझाने के लिए जो पद्धति अपनाई गई उसी का नाम स्याद्वाद है, समयसार के परिशिष्ट के प्रारम्भ में ही आचार्य कहते हैं कि : “अब प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूप के विचार द्वारा स्याद्वाद को सिद्ध करते हैं स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करने वाला, अर्हत् सर्वज्ञ का एक अस्खलित निर्बाध शासन है। वह स्याद्वाद “सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy