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विषय परिचय)
(१३ ज्ञेय, उपादेय की मुख्यता से स्वरूप भी समझा। सभी तत्त्वों में प्रयोजन भूत एक स्वजीवतत्त्व ज्ञायकतत्त्व, परम परिणामिकभाव को, खोज कर निकालने का मुख्य उपाय नयज्ञान, इसके स्वरूप को आगम अध्यात्म के विभागीकरण पूर्वक समझा। निश्चय-व्यवहार के यथार्थ स्वरूप को भी समझकर उसकी मोक्षमार्ग में उपयोगिता एवं अनिवार्यता को भी समझा। सारी समझ का सारभूत, अपने स्वतत्त्व अर्थात् ज्ञायकतत्त्व में, अपनापन स्थापन करने के पुरुषार्थ का स्वरूप भी समझा।
छह द्रव्यों की विशाल भीड़ में अर्थात् लोक में, अनादि से हमारी आत्मा खोई हुई थी, उसको हमने भाग-१ के अध्ययन के माध्यम से खोजकर अलग कर लिया, और ऐसा विश्वास जाग्रत हो गया कि जगत में अनंत द्रव्य हैं, उन सबसे भिन्न, “मैं अपने आपका स्वतन्त्र अस्तित्व रखने वाला जीवद्रव्य हूँ। मेरा स्वभाव तो ज्ञान है। ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक स्वभाव के द्वारा, उन सभी द्रव्यों के हर समय होने वाले, बदलने वाले परिणमनों को मात्र जानने वाला ही हूँ। किसी में कुछ भी परिवर्तन, हस्तक्षेप आदि नहीं कर सकता। मेरे ज्ञान में उन द्रव्यों के परिणमन ज्ञात होने पर, मेरी कर्ता बुद्धि के कारण मुझे भ्रम से ऐसा लगता था, जैसे मैंने उनको परिणमा दिया हो ? अब यथार्थ समझ के द्वारा मैंने उस भूल को भी दूर कर दिया। अत: मुझे ऐसा विश्वास जाग्रत हो गया कि मेरे को कुछ भी करना नहीं रहा। अत: सबसे उपेक्षित रहकर, मेरे उपयोग को, मेरे आत्मद्रव्य में ही सीमित कर, आत्मा को सुख का वेदन प्राप्त करने का उपाय ही करना चाहिए। इसप्रकार पर की चिंताओं से मुक्त होकरनिर्भार होकर, अपने आत्मा को अपने-आप में समेट लेने का, आत्मार्थी महापुरुषार्थ जाग्रत करता है।
उपरोक्त स्थिति प्राप्त आत्मार्थी को अब अनुसंधान करने का क्षेत्र, सीमित होकर अकेला अपना आत्मद्रव्य ही रह जाता है। अत: जब वह अपने अन्दर खोज करता है, तो उसमें क्षण-क्षण में बदलजाने वाले अनेक
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