________________
१२२ )
( सुखी होने का उपाय भाग - ५
यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनों नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे ?
समाधान :- जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो “सत्यार्थ ऐसे ही हैं" - ऐसा जानना; तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान हैं, उसे " ऐसे हैं नहीं, निमित्तादि को अपेक्षा उपचार किया है - ऐसा जानना । इसप्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है तथा दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है, ऐसे भी हैं- इसप्रकार भ्रम रूप प्रवर्तन से तो दोनों नयों का ग्रहण करना नहीं कहा है । "
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ के श्लोक ५-६ में भी उक्त विषय की पुष्टि की है, उसका गाथार्थ निम्नप्रकार है :
अर्थ :- इस ग्रंथ में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ वर्णन करते हैं । प्रायः भूतार्थ अर्थात् निश्चयनय के ज्ञान के विरुद्ध जो अभिप्राय है, वह समस्त ही संसारस्वरूप है।
अर्थ :- ग्रन्थकर्ता आचार्य अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न कराने के लिये व्यवहानय का उपदेश करते हैं और जो जीव केवल व्यवहारनय को ही जानता है उसको उस मिथ्यादृष्टि जीव के लिये उपदेश नहीं
है ।”
-
उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि उपदेश की प्रक्रिया में तो व्यवहारनय प्रधान रहता है लेकिन अपना आत्मानुभवरूपी प्रयोजन सिद्ध करने के लिए तो निश्चयनय ही प्रधान है। अपनी आंतरिक व्यवस्था में भी, व्यवहारनय तो अभेद स्वरूप आत्मा को, भेद करके एवं अन्य द्वारा उपचरित भावों के माध्यम से, अभेद अनुपचरित आत्मवस्तु को ही समझाता है । निश्चयनय उस ही आत्मवस्तु के अखंड अभेद स्वरूप का अनुभव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org