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________________ ११०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ उसको समझाने के लिये “घृत का घड़ा” कहकर ही संबोधित करना पड़ता है।" उसीप्रकार यह चैतन्य स्वरूप आत्मा कर्मजनित पर्याय से संयुक्त है, उसे व्यवहार से देव, मनुष्य इत्यादि नाम से कहते हैं, अज्ञानी जीव अनादि से उस आत्मा को देव, मनुष्य इत्यदि स्वरूप से ही जानता है, जब कोई उसे देव, मनुष्य वगैरह नाम से संबोधित करके समझावे तभी समझ पाता है और यदि आत्मा का नाम चैतन्यस्वरूप कहे, तो अन्य किसी परमब्रह्म परमेश्वर को समझ बैठता है। निश्चय से विचार करें तो आत्मा तो चैतन्यस्वरूप ही है, परन्तु अज्ञानी को समझाने के लिये आचार्य, देव गति, जाति आदि के भेद द्वारा जीव का निरूपण करते हैं। इस तरह अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न कराने के लिए आचार्य महाराज व्यवहार का उपदेश करते हैं। “केवलं व्यवहारं एव अवैति यः तस्य देशना नास्ति" जो जीव केवल व्यवहार ही का श्रद्धान करता है, उसके लिये उपदेश नहीं है। निश्चयनय के श्रद्धान बिना केवल व्यवहार मार्ग में ही प्रवर्तन करने वाले मिथ्यादृष्टियों के लिये उपदेश देना निष्फल है।" इसप्रकार अभेद अनुपचरित ऐसी अपनी यथार्थ आत्मवस्तु को पहिचानने रूपी प्रयोजन सिद्ध करने मात्र के लिए ही व्यवहारनय का उपयोग करके, तत्पश्चात् उसका आश्रय तो बिल्कुल छोड़ देना चाहिए, उसी में व्यवहारनय की सार्थकता है। क्योंकि उसका उद्देश्य तो उस आत्मवस्तु तक पहुँचाना मात्र था, वह उसने पूरा कर दिया उसके पश्चात् तो उसको पकड़ रखना भी उसके साथ तथा अपने साथ भी अन्याय होगा। इतना अवश्य है कि अज्ञानी को व्यवहार, यथार्थ आत्मवस्तु तक पहुँचाने अर्थात् ज्ञान कराने के लिये अज्ञानी की भूमिकानुसार अनेक अनेक स्टेजों द्वारा अर्थात् टुकड़े कर-कर के उस वस्तु को समझाने का प्रयास करता है। जैसे स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, मकान, रूपया, पैसा आदि को आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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