SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (१०९ "टीका :- मुनीश्वर अर्थात् आचार्य अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न कराने के लिये अभूतार्थ ऐसा जो व्यवहारनय, उसका उपदेश करते हैं। ( दूसरी लाइन का अर्थ आगे आवेगा) अनादि का अज्ञानी जीव व्यवहारनय के उपदेश बिना समझ नहीं सकता, इसलिये आचार्य महाराज व्यवहारनय के द्वारा उसको समझाते हैं, यही समयसार गाथा ८ में कहा है, “जैसे किसी म्लेच्छ को एक ब्राह्मण ने “स्वस्ति" शब्द कहकर आशीर्वाद दिया, तो उसे उसके अर्थ का कुछ बोध नहीं हुआ और वह ब्राह्मण की तरफ ताकता रहा । वहाँ एक दुभाषिया उससे म्लेच्छ भाषा में बोला कि यह ब्राह्मण कहता है कि “तेरा कल्याण हो” तब आनंदित होकर उस म्लेच्छ ने आशीर्वाद अंगीकार किया। ठीक इसी प्रकार आचार्य ने अज्ञानी जीव को “आत्मा शब्द कहकर उपदेश दिया लेकिन उसमें वह कुछ नहीं समझा और आचार्य की तरफ देखता रह गया। तब निश्चय और व्यवहारनय के ज्ञाता आचार्य ने व्यवहारनय के द्वारा भेद उत्पन्न करके गुण-गुणी भेद-विवक्षा द्वारा उसे बताया कि जो यह देखनेवाला, जाननेवाला और आचरण करने वाला पदार्थ है, वही आत्मा है, तब सहज परमानंद दशा को प्राप्त होकर वह आत्मा को निजस्वरूप से अंगीकार करता है।" इसप्रकार यह सद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण दिया। "आगे असद्भूतव्यवहारनय का उदाहरण देते हैं जैसे घृत से संयुक्त मिट्टी के घड़े को व्यवहार से घी का घड़ा कहते हैं। यहाँ कोई पुरुष जन्म से ही ऐसे घड़े को ही घी का घड़ा जानता है। जब कोई पुरुष घृत का घड़ा कहकर उसको सम्बोधन करता है, तभी वह समझता है और यदि उसे मिट्टी का घड़ा जो कि उसका वास्तविक रूप है कहकर संबोधन किया जाय, तो वह किसी दूसरे कोरे घड़े को समझ बैठता है, घी के घड़े को नहीं। निश्चय से विचार किया जाये तो घड़ा मिट्टी का ही है, परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy