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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ उठाने का प्रयत्न करता रहा । फलतः जो कुछ भी मुझे प्राप्त हुआ, वह सबका - सब अकेले पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी का ही है। १० ) वे तो सद्ज्ञान के भण्डार थे, आत्मानुभवी महापुरुष थे। उनकी वाणी का एक-एक शब्द गहन, गम्भीर एवं सूक्ष्म रहस्यों से भरा हुआ अमृत तुल्य होता था, उसमें अगर किसी विषय के ग्रहण करने, समझने में मैंने भूल की हो और उसके कारण इस लेखमाला में भी भूल हुई हो, तो वह सब मेरी बुद्धि का ही दोष है और जो कुछ भी यथार्थ है, वह सब पूज्य स्वामीजी की ही देन है। उनकी उपस्थिति में भी एवं स्वर्गवास के पश्चात् भी जैसे-जैसे मैं जिनवाणी का अध्ययन करता रहा हूँ, उनके उपदेश का एक-एक शब्द जिनवाणी से मिलता था, उससे भी उनके प्रति मेरी श्रद्धा बहुत दृढ़ हुई है। वास्तविक बात तो यह है कि जिनवाणी के अध्ययन करने के लिए दृष्टि भी पूज्य गुरुदेवश्री के द्वारा ही प्राप्त हुई है, अन्यथा मोक्षमार्ग के लिए हम तो बिल्कुल अन्धे थे । अतः इस पामर प्राणी पर तो पूज्य स्वामीजी का तीर्थंकर तुल्य उपकार है, जिसको यह आत्मा इस भव में तो क्या अनेक भवों में भी नहीं भूल सकेगा तथा मेरी धर्ममाता श्री चम्पा बहिन एवं श्री शांता बहिन का भी उपकार नहीं भूल सकता। जब-जब किसी विषय के स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती, उनके मार्गदर्शन से मेरा मार्ग सरल हो जाता था। अतः उनका भी असीम उपकार रहा । इसप्रकार जो कुछ भी गुरु उपदेश से प्राप्त हुआ और अपनी स्वयं की बुद्धिरूपी कसौटी से परखकर स्वानुभव द्वारा निर्णय में प्राप्त हुआ, उसी का संक्षिप्त सार अपनी सीधी-सादी भाषा में प्रस्तुत करने यह अन्तिम प्रयास है I मेरी उम्र ८४ वर्ष की है और इस कृति का जो भाग शेष है वह भी मेरे जीवनकाल में सम्पूर्ण तैयार हो और प्रकाशित होकर आत्मार्थी बन्धुओं को मोक्षमार्ग प्राप्त करने का मार्ग सुगमता से प्राप्त करावे - यही भावना है 1 प्रस्तुत पुस्तक आत्मार्थी जीवों को यथार्थ मार्ग प्राप्त करने में कारण बने तथा मेरा उपयोग जीवन के अन्तिम क्षण तक भी जिनवाणी की शरण में ही बना रहे एवं उपर्युक्त यथार्थ मार्ग मेरे आत्मा में सदा जयवंत रहे- इसी भावना के साथ विराम लेता हूँ | - नेमीचन्द पाटनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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