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( सुखी होने का उपाय भाग-४ की ज्ञान पर्याय पूर्ण विकसित हो गई है; अत: उसके ज्ञान में स्व तथा पर कुछ भी अज्ञात रह ही नहीं सकता। प्रवचनसार गाथा २८ की टीका से भी निम्नप्रकार समर्थन प्राप्त होता है -
“जिसप्रकार आँख, रूपी पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते तो भी आँख रूपी पदार्थों के ज्ञेयाकारों के ग्रहण करने, जानने के स्वभाव वाली है और पदार्थ स्वयं के ज्ञेयाकारों को समर्पित होने, जानने में आने योग्य स्वभाव वाले हैं; उसीप्रकार आत्मा पदार्थों में प्रवेश नहीं करता और पदार्थ आत्मा में प्रवेश नहीं करते, तथापि आत्मा पदार्थों के समस्त ज्ञेयाकारों को ग्रहण कर लेने, जान लेने के स्वभाव वाला है और पदार्थ स्वयं के समस्त ज्ञेयाकारों को समर्पित हो जाने, ज्ञात हो जाने के स्वभाव वाले हैं।"
मेरे ज्ञान की पर्याय क्षायोपशमिक होने से अल्प विकसित है; इसलिए वह थोड़े ज्ञेयों को और परोक्ष जानती है, लेकिन जानने के स्वभाव में तथा जानने की प्रक्रिया में तो कोई अन्तर नहीं हो सकता। ज्ञान की जाति एवं स्वभाव तो ज्ञान ही रहेगा। हर समय स्व एवं पर दोनों को, एक ही साथ अपने में ही जानने के स्वभाव वाला रहेगा। सारांश यह है कि ज्ञान की अल्प विकसित पर्याय हो अथवा पूर्ण विकसित पर्याय हो, दोनों का स्वभाव तो एक सा ही बना रहेगा।
ज्ञान का स्वप्रकाशकपना कैसे? प्रश्न – उपरोक्त सिद्धान्त स्वीकार करते हुए भी हमको तो ज्ञान में, मात्र पर पदार्थ ही ज्ञेय होते हुए मालूम पड़ते हैं स्व तो ज्ञात ही नहीं होता? - उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का मूल कारण तो यह है कि हमको परप्रकाशकपने का कार्य तो अनुभव में आ रहा है, लेकिन वर्तमान में स्वप्रकाशकपने का कार्य देखने (अनुभव) में नहीं आ रहा; अत: एक ही
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