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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) समय ज्ञान के स्व-परप्रकाशक स्वभाव को स्वीकार करने में कठिनता प्रतीत होती है। वास्तविक स्थिति तो यह है कि ज्ञान का स्वभाव तो स्व-पर को एक समय में एक साथ ही जानने का है, लेकिन छद्मस्थ को क्षायोपशमिक ज्ञान का सद्भाव होने से उसके ज्ञान की प्रगटता की ताकत ही एक समय मात्र एक को ही जानने की है। इसलिये जिसमें अपनत्व होता है, ज्ञान उस ओर ही जानने का कार्य करता है। ज्ञानी को स्व में अपनापन होता है; अत: उसका ज्ञान स्व की ओर आकर्षित होता है और अज्ञानी को पर में अपनापना होने से पर का ही ज्ञान होता रहता है। आत्मा की ज्ञानपर्याय की सामर्थ्य कार्यक्षमता तो हर समय ऐसी है कि वह स्व तथा पर दोनों को एक साथ जानती है; लेकिन ज्ञान क्षायोपशमिक होने से उपयोग में दोनों एक साथ नहीं आते । वह उपयोग जब स्व को जानता है, तब उसी समय पर को नहीं जान पाता । इसीप्रकार पर को जानता है, तब उसी समय स्व को उपयोगात्मक नहीं जान पाता। यही कारण है कि हमको हमारे उपयोग में निरन्तर पर के कार्य ही दिखते रहते हैं स्व का तो अस्तित्व ही नहीं दीखता। क्योंकि हमने कभी अपने आत्मा को देखना तो दूर, देखने योग्य पात्रता अर्थात् रुचि भी उत्पन्न नहीं की। अनादि से पर में ही अपनापना एवं सुख मान रखा है; अत: पर को जानने की रुचि ही अनादि से निरन्तर चली आ रही है, इसलिए अज्ञानदशा में आत्मा मात्र पर को ही जानने वाला है, ऐसा दिखता है स्व का तो अस्तित्व ही नहीं दिखता। अज्ञानी आत्मा को अपने उपयोग में जब क्रोध जानने में आता है, तब उसको मात्र क्रोध ही आत्मा का कार्य दिखता है। वह ऐसा मानता एवं कहता भी है कि मैं क्रोधी हो गया । इसीप्रकार मान दिखने पर मानी, लोभ दिखने पर लोभी आत्मा दिखता है और कहता भी है। इसीप्रकार शरीरादि दिखने पर मेरा शरीर, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र, मेरा मकान इत्यादि रूपं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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