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( सुखी होने का उपाय भाग-४
आत्मा को आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली है : उसीप्रकार हम भी क्रमशः परिणमित होते हुए कितने ही चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान के द्वारा अनादिनिधन निष्कारण असाधारण - स्वसंवेद्यमान चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतकस्वभाव के द्वारा एकत्व होने से केवल (अकेला) है ऐसे आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली है । (इसलिए) विशेष आकांक्षा के क्षोभ से बस हो, (हम तो) स्वरूपनिश्चल ही रहते हैं ।”
भावार्थ - " भगवान समस्त पदार्थों को जानते हैं, मात्र इसलिए ही वे “केवली” नहीं कहलाते, किन्तु केवल अर्थात् शुद्ध आत्मा को जानने की प्रगट पर्याय अनुभव करने से "केवली” कहलाते हैं। केवल (शुद्ध) आत्मा को जानने, अनुभव करने वाला श्रुतज्ञानी भी "श्रुत केवली” कहलाता है । केवली और श्रुतकेवली में मात्र इतना अन्तर है कि जिसमें चैतन्य के समस्त विशेष एक ही साथ परिणमित होते हैं ऐसे केवलज्ञान के द्वारा केवली केवल आत्मा का अनुभव करते हैं और जिसमें चैतन्य के कुछ विशेष क्रमशः परिणमित होते हैं ऐसे श्रुतज्ञान के द्वारा श्रुतकेवली केवल आत्मा का अनुभव करते हैं: अर्थात् केवली सूर्य के समान केवलज्ञान के द्वारा आत्मा को देखते और अनुभव करते हैं तथा श्रुतकेवली दीपक के समान श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को देखते और अनुभव करते हैं, इसप्रकार केवली और श्रुतकेवली में स्वरूपस्थिरता की तरतमतारूप भेद ही मुख्य है, कम बढ़ (पदार्थ) जाननेरूप भेद अत्यन्त गौण है । इसलिए अधिक जानने की इच्छा का क्षोभ छोड़कर स्वरूप में ही निश्चल रहना योग्य है । यही केवलज्ञान प्राप्ति का उपाय है ॥ ३३ ॥”
इसही ग्रन्थ की गाथा ३२ के भावार्थ से भी यह सिद्ध होता है कि हमारा आत्मा भी केवली के समान है।
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" इसप्रकार केवलज्ञान प्राप्त आत्मा पर से अत्यन्त भिन्न होने से
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