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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण) (९३ उन समस्त पदार्थों को जानता है, जिनमें पृथक रूप से वर्तते स्वलक्षणरूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र्य प्रगट हुआ है और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होने वाली असमानजातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है।" “अथवा अतिविस्तार से पूरा पड़े (कुछ लाभ नहीं) जिसका अनिवार (रोका न जा सके ऐसा अमर्यादित) फैलाव है ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिकज्ञान अवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्व को जानता है।" प्रश्न - अरहंत का आत्मा लोकालोक के सकल पदार्थों को एक समय मात्र में ही जान लेता है, लेकिन हमारा ज्ञान तो लम्बे काल में भी अति अल्प ज्ञेयों को जान पाता है। अत: हमारा आत्मा भी अरहंत जैसा ही है, ऐसा विश्वास में कैसे लाया जा सकेगा? उत्तर - उपरोक्त प्रश्न द्रव्य (ध्रुव) और पर्याय का यथार्थ ज्ञान नहीं होने का द्योतक है। मेरे द्रव्य (ध्रुव) का स्वभाव केवली के समान है; इसमें शंका का अवकाश नहीं है। पर्याय अपेक्षा तो प्रवचनसार की गाथा ३३ की टीका में आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि केवली भगवान लोकालोक को जानने के कारण केवली नहीं हैं। वरन् केवलज्ञान (क्षायिकज्ञान) के द्वारा अपने आत्मा को जानते हैं, इसलिए केवली हैं.और हम (श्रुतज्ञानी) श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को जानते हैं; इसलिए श्रुतकेवली हैं। (यहाँ द्वादशांगपाठी श्रुतकेवली कहे जाते हैं, वह अपेक्षा नहीं है) आत्मा को जानने की अपेक्षा श्रुतज्ञानी और केवलज्ञानी समान हैं, परज्ञेयों के कम ज्यादा जानने की अपेक्षा गौण हैं । उक्त टीका निम्नप्रकार है टीका - “जैसे भगवान युगपत् परिणमन करते हुए समस्त चैतन्य विशेष युक्त केवलज्ञान के द्वारा, अनादिनिधन-निष्कारणअसाधारण-स्व संवेद्यमान चैतन्य सामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतकस्वभाव से एकत्व होने से केवल (अकेला, शुद्ध अखण्ड) है ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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