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अपनी बात प्रस्तुत पुस्तक 'सुखी होने का उपाय' भाग -४ है। इसके पूर्व ३ भाग प्रकाशित होकर पाठकगणों को उपलब्ध हो चुके हैं। मैंने उक्त सभी रचनाएँ मात्र स्वयं के कल्याण के लिए एवं अपने उपयोग को सूक्ष्म एवं एकाग्र कर जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने की दृष्टि से की हैं। जितनी गूढता पूर्वक चिन्तन किसी भी विषय पर लिखने की जिम्मेदारी के आधार पर होता है, उतना अन्य माध्यमों से नहीं हो पाता। मेरी आत्मा, विषय समझ में आ जाने पर भी उसको संकुचित करके अस्पष्ट छोड़ देने के लिए सहमत नहीं होती। तथा जितना भी विस्तारपूर्वक कथन किया जावेगा, मेरा उपयोग भी उतने काल तक जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों के चिन्तन-मनन में लगा रहेगा और यह मेरे जीवन की उपलब्धि होगी। इसलिए मैंने विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण करने का संकल्प कर लिया है। अत: यह विषय आगामी कितने भागों में पूर्ण होगा, यह अभी निर्णय नहीं हो सकेगा।
उपरोक्त सभी रचनाओं में पुनरावृत्ति हुई है, क्योंकि ये रचनाएँ अलग-अलग समयों पर जब भी उपयोग खाली हुआ टुकड़ों-टुकड़ों में की गईं हैं, लगातार नहीं। मुझे भाषा एवं व्याकरण का ज्ञान अधिक नहीं होने से वाक्य-विन्यास तथा वाक्यों का जोड़-तोड भी सही नहीं हैं। अत: उपरोक्त सभी पुस्तकों में पाठकगणों को इसप्रकार की कमी अनुभव होगी, सम्भव है पढ़ने में रुचिकर भी नहीं लगे, इसके लिए पाठकगण क्षमा करें। कृपया इन कमियों को गौण करके विषय के भाव को ग्रहण करने की चेष्टा करें - यही मेरी नम्र प्रार्थना है। अध्यात्म के कथन तो भावना दृढ़ करने के लिए होते हैं, अत: उसमें पुनरावृत्ति दोष नहीं मानना चाहिए।
पूर्व संकल्पानुसार चतुर्थ भाग का निर्णीत विषय था “यथार्थ निर्णय द्वारा सविकल्प आत्मज्ञान” लेकिन इस विषय में प्रवेश करने पर ऐसा लगा कि अभी तो यथार्थ निर्णय का विषय ही स्पष्ट नहीं हो पा रहा है
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