SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ सुख प्राप्त करता, सुख टलैछे लेश ये लक्ष्ये लहो । क्षण-क्षण भयंकर भावमरणे, का अहो ! राचीरहो । उपरोक्त चर्चा से यह तो सिद्ध होता है कि इन्द्रियजन्यज्ञान पर में अपनापन होने से परलक्ष्यी ही रहता है, अज्ञानी ज्ञेयों का स्वामी मानकर, उनको अपने अनुकूल करने की चेष्टा में निरन्तर आकुलित रहता है । संसारी प्राणी आकुलता की कमी को ही सुख मानता है, लेकिन वह वास्तव में सुख नहीं है, प्रत्युत दुःख ही है। सुख तो वास्तव में निराकुलता ही है । हमारे अनुभव में भी है कि हम आकुल्लू को मिटाना चाहते हैं, रखना या बढ़ाना नहीं चाहते, बल्कि उसकी कमी का भी नहीं बरन् अभाव करने का ही प्रयास करते हैं । अतः आकुलता तो दुःख ही है, सुख तो उसका अभाव होना ही है । प्रश्न निराकुलता कहाँ से व कैसे प्राप्त की जावे ? उत्तर यथार्थतः तो समस्त द्वादशांग की रचना ही एकमात्र इस ही प्रश्न का समाधान है । पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला में कहा है कि ८० ) - - " आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमांहि न यातैं शिवमग लाग्यो चहिये ॥" आचार्यश्री समन्तभद्र महाराज ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की रचना करने में प्रतिज्ञा की है कि - " देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणं । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।। अर्थ - मैं उस समीचीन (यथार्थ) धर्म को कहूँगा, जो कर्मों का अभाव करनेवाला हो और प्राणीमात्र को संसार दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख को प्राप्त करा दे ।” तात्पर्य यह है कि आत्मा में राग द्वेष की उत्पत्ति ही यथार्थतः आकुलता है, वही आत्मा का दुःख हैं और वीतरागता ही निराकुलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy