SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (७९ होने से, बन्ध का कारण होने से और विषम होने से, इन्द्रिय सुख, पुण्यजन्य होने पर भी दुःख ही है। इन्द्रियसुख (१) पर के सम्बन्धवाला होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीन है, (२) बाधासहित होता हुआ खाने, पीने और मैथुन की इच्छा इत्यादि तृष्णा की व्यक्तियों से (तृष्णा की प्रगटताओं से) युक्त होने से अत्यन्त आकुल है, (३) विच्छिन्न होता हुआ असातावेदनीय का उदय जिसे च्युत कर देता है ऐसे सातावेदनीय के उदय से प्रवर्त्तमान होता हुआ अनुभव में आता है इसलिए विपक्ष की उत्पत्तिवाला है, (४) बन्ध का कारण होता हुआ विषयोपभोग के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार कर्मरज के घन पटलका सम्बन्ध होने के कारण परिणाम से दुःसह है और (५) विषम होता हुआ हानि-वृद्धि में परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिर है; इसलिए वह (इन्द्रियसुख) दुःख ही है।" इसप्रकार यह तो स्पष्ट समझ में आता है कि यथार्थत: आकुलता ही दुःख है, तथा ज्ञेयों में मेरेपने की मान्यता ही आकुलता का उत्पादक प्रश्न - ज्ञान आत्मा का होते हुए भी परलक्ष्यी क्यों बना रहता है? उत्तर उत्तर - उसका कारण यह मिथ्या मान्यता है कि ज्ञेयों का मैं स्वामी हूँ, उन पर मेरा अधिकार है और मेरा सुख ज्ञेयों में से ही प्राप्त होगा; अत: सुख प्राप्त करने की तीव्र लालसा होने से उसको प्राप्त करने के लिए ज्ञान परलक्ष्यी ही बना रहता है। ज्ञेय तो अनन्त हैं और ज्ञान में ज्ञेय के रूप में जानने में भी आते रहते हैं। उनसे सुख प्राप्त करने के लिए परलक्ष्यी ज्ञान ज्ञेयों को परिवर्तन करने की लालसा से आकुलित होकर भटकता रहता है । उसको यह विश्वास तो होता नहीं कि अनाकुलता मेरा स्वभाव है, अत: मेरे में से ही वास्तविक सुख प्रगट होगा। इसलिए आकुलतारूपी दुःख प्राप्त करते रहने की परम्परा अनादिकाल से अनवरत रूप से चली आ रही है। श्रीमद् राजचन्द्रजी ने कहा भी है कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy