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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (७७ ज्ञात हो जाते हैं। उन ज्ञेय बनने वाले द्रव्यों को यह पता भी नहीं होता कि कौन उनको जान रहा है। इसप्रकार ज्ञेयद्रव्यों की भी सहज स्वभाविक स्वतंत्र परिणमन की व्यवस्था है। अज्ञानीजीव को उपरोक्त व्यवस्था पर श्रद्धा- विश्वास नहीं होने से, ज्ञेयों के ज्ञान के समय, अपने तटस्थ ज्ञाता स्वभाव को भूलकर, ज्ञेयों में अपनापन मानते हुये अच्छा माननेरूप अथवा बुरा माननेरूप सम्बन्ध जोड़ लेता है। फलत: उनपर स्वामित्व मानकर अच्छा लगने वाले ज्ञेयों को रखने की एवं बुरा लगने वाले ज्ञेयों को दूर करने की चेष्टा करता रहता है। लेकिन उसका सफल होना तो संभव ही नहीं है । फलत: निरन्तर आकुलित ही बना रहता है । योगानुयोग से इसकी इच्छा के अनुसार कभी वे द्रव्य परिणमन करते हुए दिख जाते हैं, तो इसकी विपरीत मान्यता और भी दृढ हो जाती है; फलत: अपने प्रयासों को सफल होता हुआ मानने के कारण उन ज्ञेयों को बनाये रखने अथवा दूर करने के प्रयासों में और भी तीव्रता के साथ जुट जाता है, इसप्रकार निरन्तर आकुलित बना रहता है। प्रयासों की सफलता पर प्रसन्नतारूपी वेदन, तथा उनके भोगने की गृद्धतारूपी तीव्र आकुलताओं से ग्रस्त रहता है एवं असफल होने पर दीनता हीनता सम्बन्धी आकुलताओं से त्रस्त रहता है। अनादिकाल से अज्ञानीजीव इसही प्रकार की आकुलताओं को भोगता हुआ निरन्तर दुःखी होता चला आ रहा है। ___ गम्भीरता से विचार किया जावे तो इस बीमारी की जड़ तो विपरीत मान्यता है । इसकी मान्यता है कि मेरा सुख तो इन ज्ञेयों में से ही आवेगा और मैं इनका स्वामी हूँ। अत: सुख प्राप्ति के लिए उन ज्ञेयों के प्रति झपट्टे मारता रहता है। सफलता अथवा असफलता मिलने पर आकुलतारूपी दुःख ही प्राप्त होता चला आ रहा है। अज्ञानीजीव का ज्ञान मिथ्यात्व के कारण ज्ञेयों की ओर ही केन्द्रित रह कर मात्र परलक्ष्यी ही बना हुआ है। वह परलक्ष्यीज्ञान तो इन्द्रिय अथवा मन के माध्यम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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