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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) ( ५९ उत्तर यह बात तो सत्य है कि अजीव शब्द ही यह बताता है कि जिनमें उपरोक्त जीवपने का अभाव हो वह सब अजीव ही है, इस अपेक्षा भी अजीव में सभी पर्याय तत्त्व सम्मिलित हो जाना चाहिये । लेकिन जिनवाणी में कथन करने की पद्धति दो प्रकार से है । एक तो सामान्य अर्थात् संक्षेप कथन और दूसरा विशेष अर्थात् भेद प्रभेद के द्वारा विस्तार कथन | संक्षेप रुचि शिष्यों के लिए तो सामान्य कथन ही पर्याप्त होता है, वे तो सामान्य कथन के द्वारा ही वस्तुस्वरूप को पहिचानकर आगे बढ़ते चले जाते हैं और शीघ्र ही अपने प्राप्तव्य को प्राप्त कर लेते हैं । इस कथन का लाभ यह है कि ऐसे जीवों का समय एवं शक्ति दोनों का पूरा-पूरा सदुपयोग होकर वे शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लेते हैं । लेकिन विस्ताररुचि शिष्यों को जब तक भेद-प्रभेद करके विस्तारपूर्वक कथन नहीं किया जाये, वे वस्तुस्वरूप को समझ ही नहीं पावेंगे तथा पर्याय तत्त्वों में हेय-उपादेयबुद्धि उत्पन्न नहीं होगी तो इन तत्वों के स्वरूप समझने पर भी मोक्षमार्ग कैसे प्राप्त हो सकेगा ? अतः ऐसे जीवों को जिसप्रकार से वस्तुस्वरूप समझ में आ जावे उस ही प्रकार से युक्ति, आगम, अनुमान, तर्क, दृष्टान्तादि के द्वारा समझाया जाता है; ताकि वे अपनी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता को छोड़कर यथार्थ वस्तु स्वरूप समझकर हेय का अभाव कर उपादेय ग्रहण कर कल्याण कर सकें । इस पद्धति का लाभ यह है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भी अपना स्वरूप समझकर अपना कल्याण कर सकता है। श्रीगुरु का उद्देश्य तो जीवमात्र के कल्याण का रहता है। - उपरोक्त पद्धतियों के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामान्य अपेक्षा से जीवतत्त्व तो अकेला एक ही है और वह स्वयं ज्ञायक ही है । दूसरी ओर समस्त ज्ञेय हैं, जिनमें ऊपर कहे गये समस्त परद्रव्यों के साथसाथ अपने ही असंख्यप्रदेशों में उत्पन्न होने वाले समस्त विकारीनिर्विकारीभाव आदि भी, परज्ञेय में गर्भित हो जाते हैं। इस अपेक्षा एक अजीवतत्त्व में ही सबका समावेश हो जाता है। ऐसे सामान्य कथन अपेक्षा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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