SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०) ( सुखी होने का उपाय भाग - ४ ज्ञानपर्याय में ज्ञात अनेक ज्ञेयों में से भी, यथार्थ भेदज्ञान करके अपने जीवतत्त्व को पहिचान लिया जाता है। अज्ञानी अपने आपको अनादिकाल से पर्याय जितना व जैसा ही मानता चला आ रहा है, ऐसे जीव को यथार्थ स्वरूप के ज्ञान द्वारा, ऐसी मान्यता का अभाव कराके अपने जीवतत्त्व में ही अहंबुद्धि अर्थात् जीवतत्त्वरूप ही अपना अस्तित्व स्वीकार कराना है । 'चेतना' जीवतत्त्व का यथार्थ लक्षण जीवतत्त्व को पहिचानना इसलिए भी कठिन प्रतीत होता है कि ये पर्यायें तो व्यक्त हैं इन्द्रियज्ञान का विषय हैं और पर्यायों की भीड़-भाड़ के पीछे छिपी हुई वह आत्मज्योति तो अव्यक्त है, इन्द्रियज्ञान का विषय नहीं है । अतः वह जीवतत्त्व इन्द्रिय अथवा मन के द्वारा प्रवर्तित ज्ञान का विषय नहीं होने से व्यक्त (प्रगट) नहीं है । जहाँ-जहाँ इन्द्रियज्ञान शब्द आवे उसमें मनजन्यज्ञान को भी सम्मिलित समझ लेना चाहिए। वर्तमान में हमारे पास तो मात्र इन्द्रियज्ञान होने से, हमको जीवतत्त्व को पहिचानना कठिन लग रहा है। लेकिन जब तक उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होकर दृढ़ता के साथ स्वीकार नहीं हो जावेगा, तब तक हम उसको पहिचानकर, भेदज्ञान द्वारा भिन्न कैसे कर सकेंगे ? इसही तथ्य के समर्थन में भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत समयसार ग्रन्थ जीवाजीवाधिकार की गाथा नं. ४९ पठनीय एवं मननीय है । यही गाथा आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार में गाथा १७२, नियमसार के शुद्धभाव अधिकार में गाथा ४६, पंचास्तिकाय के मोक्षमार्ग प्रपंच वर्णन की गाथा १२७, इसीप्रकार अष्टपाहुड़ के भावपाहुड़ में गाथा नं. ६४ पर प्रस्तुत की है । आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों परमागमों में ज्यों की त्यों अविकल रूप से प्राप्त होने वाली यह एक ही गाथा है और यह ही गाथा धवल ग्रन्थ में भी मिलती है, जो कि पर्यायार्थिकनय की मुख्यता से कथन करने वाला ग्रन्थ है । इससे इस गाथा के विषय की महत्ता ख्याल में आनी चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy