________________
यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
( ४९
भावार्थ यहाँ ज्ञान का ज्ञान में स्थिर होना दो प्रकार से जानना चाहिए। एक तो मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और फिर मिथ्यात्व न आये तब ज्ञान ज्ञान में स्थिर हुआ कहलाता है; दूसरे जब ज्ञान शुद्धोपयोगरूप में स्थिर हो जाये और फिर अन्य विकाररूप परिणमित न हो तब ज्ञान ज्ञान में स्थिर हुआ कहलाता है । जब तक ज्ञान दोनों प्रकार से ज्ञान में स्थिर न हो जाये तब तक भेदविज्ञान को भाते रहना चाहिये । अब पुनः भेदविज्ञान की महिमा बतलाते हैं
अर्थ
-
-
जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं और जो कोई बंधे हैं वे उसी के (भेदविज्ञान के ही) अभाव से बंधे हैं।
--
भावार्थ – अनादिकाल से लेकर जब तक जीव को पेदविज्ञान नहीं है तब तक वह कर्म से बंधता ही रहता है संसार में परिभ्रमण करता ही रहता है, जो जीव भेदविज्ञान को भाता है वह कर्मों से अवश्य छूट जाता है – मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इसलिए कर्म-बंध एवं संसार का मूल भेदविज्ञान का अभाव ही है और मोक्ष का पहला कारण भेदविज्ञान ही है। भेदविज्ञान के बिना कोई सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता
उपरोक्त भेदविज्ञान का मूल आधार तो अपने स्वरूप का यथार्थ ज्ञान ही है । अपने स्वरूप की निःशंक एवं अचलित श्रद्धा हुए बिना अन्य से किस आधार से भेदविज्ञान कर सकेगा ? जैसे गेहूँ में से अन्य वस्तुओं को भिन्न करने के लिए, गेहूँ के स्वरूप की निःशंक एवं अचलित श्रद्धा होती है; तब हो उसमें मिली हुई अन्य वस्तुओं को भिन्न किया जा सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है ।
अज्ञानी को ज्ञान में अनेक प्रकार के ज्ञेय ज्ञात होने पर, अपना स्वरूप ही पर ज्ञेयों जैसा दिखने लगता है। आत्मा उन ज्ञेयों में ऐसा एकमेक हो गया ज्ञात होता है कि अन्य कोई स्वरूप हो सकता है, ऐसी शंका भी उत्पन्न नहीं होती । ऐसी स्थिति में ज्ञानी बनने के लिए अपने स्वरूप की नि:शंक श्रद्धा ही एकमात्र उपाय है । जिसके द्वारा आत्मा की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org