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________________ २८) ( सुखी होने का उपाय भाग-४ अपनेपने से प्रवर्तता है और वहाँ (क्रोधादि में अपनेपने से) प्रवर्तता हुआ वह यद्यपि क्रोधादि क्रिया का परभावभूत होने से निषेध किया गया है, तथापि स्वभावभूत होने का उसे अभ्यास (मिथ्या अभिप्राय) होने से क्रोधरूप परिणमित होता है, राग रूप परिणमित होता है, मोहरूप परिणमित होता है।" ऐसी विपरीत श्रद्धा वाले जीव को ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कराना कितना कठिन कार्य लगता है कि “वह क्रोधस्वभावी नहीं है, वरन् ज्ञानस्वभावी है" यह तो पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं। अत: उपरोक्त श्रद्धा परिवर्तन के लिए उग्र रुचि एवं गम्भीरतापूर्वक तीव्र लगन के साथ समझने का पुरुषार्थ भी सतत् रूप से करना पड़ेगा, तभी कार्यसिद्धि सम्भव है। उपरोक्त श्रद्धा परिवर्तन का पुरुषार्थ करने की क्रमश: दो पद्धतियाँ हैं। सर्वप्रथम तो उपरोक्त विषय का सैद्धान्तिक ज्ञान करना आवश्यक है। सैद्धान्तिक ज्ञान के माध्यम से यथार्थ निर्णय प्राप्त कर लेने पर, उसका अपने आपको अर्थात् स्वयं को भावभासन होना चाहिए कि यह सारा कथन मेरे स्वयं के लिए कल्याणकारी कैसे हो। उसही को आधुनिक भाषा में सैद्धान्तिक ज्ञान कहा जाता है। इस पहली पद्धति में द्रव्यश्रुत का अध्ययन, सत्समागम एवं श्रवण, चिन्तन आदि इस श्रद्धापूर्वक होना चाहिये कि जिनवाणी तो आप्त वचन है, सर्वज्ञ अनुसार है, अत: नि:शंक श्रद्धा करने योग्य है। इसप्रकार रुचि एवं लगनपूर्वक जिनवाणी का अभ्यास करने से ही स्व-पर का यथार्थ ज्ञान हो सकता है। दूसरी पद्धति में आत्मा का जो स्वरूप प्रथम पद्धति के माध्यम से समझा था। एवं आगम, अनुमान, तर्क आदि के माध्यम से निर्णय में दृढ़ किया था, उसी को उग्र रुचिपूर्वक चिन्तन, मनन के द्वारा, अपने भावों से मिलान कर भावभासन प्राप्त कर, अन्तर्परिणति में त्रिकालीज्ञायकध्रुवतत्त्व में अपनापन स्थापन करना चाहिये। पर अर्थात् ज्ञेय मात्र में परपना www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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