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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (२७ स्वसन्मुख होना असम्भव है, उसके बिना आत्मानुभूति भी सम्भव नहीं है। अत: जैसे भी बने वैसे रुचिपूर्वक द्रव्यश्रुत के अवलम्बन द्वारा आत्मार्थी का “मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ" ऐसा निर्णय करना सर्वप्रथम कर्तव्य है।
द्रव्यश्रुत के अध्ययन करने की विधि के सम्बन्ध में मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के आधार से सुखी होने का उपाय भाग-२ में पृष्ठ २२ से ४२ तक “तत्त्वनिर्णय करने की विधि" की विस्तार से चर्चा की गई है, उसका वर्तमान सन्दर्भ में मनोयोगपूर्वक अध्ययन करना चाहिए। इसमें इस समस्या का समाधान किया गया है कि द्वादशांग के रूप में द्रव्यश्रुत तो विस्तरित विशाल है और हमारा जीवन एवं बुद्धि अतिअल्प है, अत: हम किस-किसका अध्ययन करें; हमारा जीवन समाप्त हो जाने पर भी यह तो पूरा होने वाला नहीं है, फिर हम आत्मानुभव कब और कैसे कर पावेंगे?
तात्पर्य यह है कि समस्त द्रव्यश्रुत के अध्ययन का सार तो एकमात्र “मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ" ऐसा निर्णय कराना ही है और ऐसा निर्णय करने की पद्धति ही एकमात्र प्रयोजनभूत है।
क्रमश: दो पद्धतियों द्वारा ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय __ अनादिकाल से यह अज्ञानी जीव अपने आत्मा को क्रोधी, मानी, मायावी आदि अनेक भावों वाला मानता चला आ रहा है, क्योंकि इसको आत्मा मात्र इन्हीं रूप अनुभव में आ रहा है । इन भावों के अतिरिक्त अन्य कुछ आत्मा का स्वरूप हो भी सकता है? ऐसी इसको शंका ही नहीं होती, अत: नि:शंकतापूर्वक आत्मा को ऐसा ही मानता चला आ रहा है। इसप्रकार की मान्यता वाले जीव को ही जिनवाणी में अज्ञानी सम्बोधन किया है।
समयसार की गाथा ६९-७० की टीका में भी ऐसा ही कहा है -
“जब तक यह आत्मा, जिन्हें संयोग सिद्ध सम्बन्ध है ऐसे आत्मा और क्रोधादि आस्रवों में भी अपने अज्ञानभाव से, विशेष (अन्तर) न जानता हुआ उनके भेद को नहीं देखता तब तक नि:शंकतया क्रोधादि में
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