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( सुखी होने का उपाय भाग-४ ___ इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से प्रवर्तने वाला ज्ञान तो मात्र मूर्तिक पदार्थों को ही जान सकता है, उसमें अमूर्तिक आत्मा का ज्ञान करने की क्षमता ही नहीं है । ज्ञान के स्वलक्ष्यपूर्वक वर्तन में एवं परलक्ष्यपूर्वक वर्तन में अत्यन्त स्वरूपविपरीतता है। अत: स्वलक्ष्यपूर्वक प्राप्त होने वाली उपलब्धि, परलक्ष्य से कैसे प्राप्त हो सकेगी है? असंभव है। अत: स्वलक्ष्यी ज्ञान से प्राप्त होने वाली दशा अत्यन्त निराकुल आनन्ददायिनी होती है।
इन्द्रियज्ञान हेय क्यों? इन्द्रियज्ञान परलक्ष्यी ज्ञान है, वह आत्मा को कैसे प्राप्त करावेगा? नहीं करा सकेगा। इसकारण ही इन्द्रियज्ञान हेय है। अज्ञानी का इन्द्रियज्ञान जिन पदार्थों को जानता है उनको इष्ट अथवा अनिष्ट मानते हुये जानता है। अत: राग अथवा द्वेष करते हुये ही जानने की क्रिया करता है । फलत: आकुलित रहता है। इसप्रकार मात्र आकुलता का उत्पादक होने से इन्द्रियज्ञान हेय है। जिनवाणी में इन्द्रियज्ञान को हेय कहकर, उसके प्रति उपादेयबुद्धि छुड़ाई है एवं यह सिद्ध किया है कि इन्द्रियज्ञान आत्मोपलब्धि के लिये विघ्नरूप होता है। इसही का समर्थन प्रवचनसार की गाथा ६३ में निम्नप्रकार किया है -
टीका - “प्रत्यक्षज्ञान के अभाव के कारण परोक्षज्ञान का आश्रय लेने वाले इन प्राणियों को उसकी (परोक्षज्ञान की) सामग्रीरूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही (स्वभाव से ही) मैत्री प्रवर्तती है। अब इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहे के गोले की भांति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है, उस दुःख के वेग को सहन न कर सकने से उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान (रोग से थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है। इसलिये इन्द्रियाँ व्याधि के समान होने से और विषय व्याधि के प्रतिकार समान होने से छास्थों के पारमार्थिक सुख नहीं हैं।"
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