________________
१७२)
( सुखी होने का उपाय भाग-४ व्य ही हर समय ध्रुव रहते हुये पलटता भी रहता है । अत: ज्ञेय तो सम्पूर्ण दार्थ ही है, लेकिन पदार्थ में नित्य पक्ष एवं अनित्य पक्ष परस्पर विरोधी होते हुये भी एक ही समय द्रव्य में वर्तते रहते हैं। दूसरी ओर छद्मस्थ जीव के ज्ञान की ऐसी निर्बलता है कि दोनों पक्षों को एक साथ जान नहीं सकता अर्थात् एक ही समय एक साथ नहीं जान सकता अत: प्रश्न ऐसा होना चाहिये कि ज्ञान दोनों में से किसको जाने? इसका नियामक कौन है? उत्तर स्पष्ट है कि इसके लिये किसी नियामक की आवश्यकता नहीं होती, यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और यह हम सबके अनुभव से सद्ध है कि जिस किसी को अपना मान रखा है सहजरूप से ज्ञान उस ओर ही केन्द्रित हुये बिना रहता ही नहीं है। जैसे किसी शोभा यात्रा में १००० व्यक्ति हों, उनमें अपना परिचित व्यक्ति हो तो हमारा ज्ञान उसकी
ओर ही आकर्षित हुये बिना रहेगा नहीं, इसीप्रकार जिसका द्रव्य (ध्रुव) में अपनापन नहीं होगा तो सहज रूप से ज्ञान उस ओर ही आकर्षित रहेगा
और अज्ञानी की अनादि से पर और पर्यायों में अपनापन माना हुआ हे अत: उसका ज्ञान सहज रूप से बिना प्रयास के उनकी ओर आकर्षित रहता है। इसप्रकार ज्ञेय बनाने से नहीं बनाया जा सकता, वरन् जिसमें अपनापन होगा, वह सहज रूप से ज्ञेय बने बिना रहेगा नहीं। ज्ञानी के ज्ञान में दूसरा पक्ष गौण रूप से ज्ञान में वर्तता रहता है। अज्ञानी को तो अकेली पर्याय में ही अपनापन होने से तथा ध्रुव का तो कभी परिचय ही नहीं होने से, ज्ञान में दूसरे पक्ष का अभाव ही वर्तता है।
ज्ञानी को तो ध्रुव का अनुभवपूर्वक परिचय हुआ है। अत: उसकी तो दोनों चक्षुयें खुली रहती हैं। इसलिये द्रव्य के ज्ञान के समय पर्यायें ज्ञान में गौण रूप से वर्तती रहती हैं । ज्ञानी का रुचि के बल से, स्व की ओर उपयोग की एकाग्रता बढ़ती जाती है और पर और पर्याय की ओर की एकाग्रता घटती जाती है और बढ़ते स्व में पूर्ण तन्मय होकर स्वयं परमात्मा बन जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org