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________________ यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१७१ प्रयोजन तो प्राणीमात्र का सुख प्राप्त करने का होता है लेकिन अज्ञानी ने पर (परज्ञेयों) में एकत्वबुद्धि पूर्वक सुख माना है। इसलिये उसका ज्ञान भी अनादि से परलक्ष्यी ही बना है। द्रव्यदृष्टि के अभाव में मात्र पर्यायों को ही ज्ञेय बनाता हुआ पर्यायमूढ़ ही बना रहता है, उसको द्रव्यदृष्टि प्रगट हो जाने से वह अपना भी अस्तित्व द्रव्य (ध्रुव) रूप ही मानता है और उसके साथ वर्तनेवाला ज्ञान भी द्रव्यार्थिकनय के द्वारा अपने को जानता है, यह ज्ञान की स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे ज्ञानी के ज्ञान में परज्ञेय ज्ञात होते हैं तो वे भी द्रव्यदृष्टिपूर्वक वर्तने वाले ज्ञान में तो द्रव्य ही (गुण-पर्यायों का अभेद पदार्थ) ही ज्ञात होता है। पदार्थ में गुणभेद-पर्यायभेद सब गौण रहते हैं द्व फलत: ज्ञेयों में असमानता की दृष्टि का अभाव होने से मोह उत्पन्न नहीं होता। आचार्यश्री ने प्रवचनसार की गाथा ९३ व ९४ के माध्यम से इस ही प्रक्रिया का प्रतिपादन किया है कि पदार्थ अर्थात् द्रव्य को ज्ञेय बनाने वाला स्वसमय है एवं मात्र पर्याय को ज्ञेय बनाने वाला परसमय है। परसमय ही मिथ्यादृष्टि है। अत: स्वसमय बनने के लिये हमको द्रव्य की दृष्टि ही प्रगट करनी पड़ेगी आचार्यश्री ने भी श्लोक ६ में यही कहा है कि पदार्थ को (पर्याय को नहीं) ज्ञेय बनाने वाले को ही मोह (मिथ्यात्व) क्षय को प्राप्त होता है। पर्यायरहित द्रव्य ज्ञेय कैसे बनेगा? प्रश्न - पदार्थ (द्रव्य) को विषय बनाने वाले को भी पर्याय तो ज्ञेय बनेगी ही, पर्यायरहित द्रव्य ज्ञेय कैसे बनेगा? हमको तो ज्ञेय के रूप में पर्याय ही दृष्टि में आती है द्रव्य तो ज्ञान में आता ही नहीं। अत: द्रव्य को (पदार्थ को) ज्ञेय कैसे बनाया जावे? उत्तर - उपरोक्त प्रश्न ही इस बात का द्योतक है कि ज्ञानक्रिया का वास्तविक स्वरूप ही समझ में नहीं आया। बल्कि जिसमें अपनापन होता है, ज्ञान उस ओर गये बिना रहता ही नहीं है । वास्तव में ज्ञेय बनाने से नहीं बनते आत्मा तो द्रव्य-गुण-पर्याय का अभेद अखण्ड पिण्ड है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
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