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( सुखी होने का उपाय भाग - ४
आगामी भागों में करेंगे। तत्पश्चात् सविकल्प आत्मज्ञान प्राप्त करने के उपाय के संबंध में चर्चा करेंगे ।
अतः मुझे पूर्ण विश्वास है कि इन पुस्तिकाओं में बताया हुआ मार्ग ही संसार में भटकते प्राणियों को संसार भ्रमण से छुटकारा प्राप्त करने का यथार्थ मार्ग है। मैं स्वयं अनादिकाल से भटकता हुआ दिग्भ्रमित प्राणी था, यथार्थ मार्ग प्राप्त करने के लिए दर-दर की ठोकरें खाता फिरता था, सभी अपने चिन्तन को ही सच्चा मार्ग कहते थे; लेकिन किसी के पास रंचमात्र भी शान्ति प्राप्त करने का मार्ग नहीं था। ऐसी कठिन परिस्थितियों में मेरे सद्भाग्य का उदय हुआ, न जाने कहाँ-कहाँ भटकते हुए सन् १९४३ में प्रातः स्मरणीय महान उपकारी गुरुदेव पूज्यश्री कानजीस्वामी का समागम प्राप्त हो गया; कुछ वर्षों तक तो उनके बताये मार्ग पर भी पूर्ण निःशंकता प्राप्त नहीं हुई, तब तक भी इधर-उधर भटकता रहा । अन्ततोगत्वा सभी तरह से परीक्षा कर यह दृढ़ निश्चय हो गया कि आत्मा को शान्ति प्राप्त करने का यदि कोई मार्ग हो सकता है तो मात्र एक यही मार्ग हो सकता है, अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है - ऐसे विश्वास के साथ पूर्ण समर्पणतापूर्वक उनके सत्समागम का पूरा-पूरा लाभ उठाने का प्रयत्न करता रहा। फलतः जो कुछ भी मुझे प्राप्त हुआ, वह सबका सब अकेले पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी का ही है ।
वे तो सद्ज्ञान के भण्डार थे, आत्मानुभवी महापुरुष थे । उनकी वाणी का एक-एक शब्द गहन, गम्भीर एवं सूक्ष्म रहस्यों से भरा हुआ अमृततुल्य होता था, उसमें से अगर किसी विषय के ग्रहण करने, समझने में मैंने भूल की हो और उसके कारण इस लेखमाला में भी भूल हुई हो, तो वह सब दोष मेरी बुद्धि का ही है और जो कुछ भी यथार्थ है, वह सब पूज्य स्वामीजी की ही देन है। उनकी उपस्थिति में भी एवं स्वर्गवास के पश्चात् भी जैसे-जैसे मैं जिनवाणी का अध्ययन करता रहा हूँ, उनके उपदेश का एक-एक शब्द जिनवाणी से मिलता था, उससे भी मेरी श्रद्धा उनके प्रति और भी दृढ़ हुई है। वास्तविक बात तो यह है कि जिनवाणी के अध्ययन करने के लिए दृष्टि भी पूज्य गुरुदेवश्री के द्वारा ही प्राप्त हुई
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