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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण ) (१०७ साथ सम्बन्ध कहा जाता है। वास्तव में तो आत्मा की ज्ञानपर्याय का, ज्ञेय के आकाररूप परिणमन तो स्वयं उस ज्ञान का है। यथार्थत: देखा जावे तो जिनको हम ज्ञेयाकार कह रहे हैं, वे तो ज्ञान के आकार ही हैं क्योंकि वह ज्ञान स्वयं ही उन ज्ञेयों के आकाररूप हुआ है।
प्रवचनसार गाथा २६ की टीका के अन्तिम चरण में कहा है -
“नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों को आत्मस्थ (आत्मा में रहे हुए) देखकर ऐसा उपचार से कहा जाता है कि सर्वपदार्थ आत्मगत (आत्मा में) हैं, परन्तु परमार्थत: उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता।"
इसप्रकार यह स्पष्ट है कि न तो ज्ञेय के कारण ज्ञान की पर्याय प्रगट हुई है और न ज्ञान की पर्याय के कारण उस ज्ञेय में कुछ हुआ है।
आत्मा का जाननेरूप परिणमन, ज्ञेय से अत्यन्त निरपेक्ष रहते हुए, अपनी स्वयं की योग्यतानुसार हर समय उत्पाद व्यय करता रहता है। अत: सिद्ध हुआ कि आत्मा की हर समय की पर्याय, अपनी पर्यायगत योग्यतानुसार अपने कारण से जानती है और जिनको नहीं जानती वह भी, अपनी योग्यता के अभाव के कारण नहीं जानती । उस पर्याय के उत्पाद के लिए ज्ञेय की उपस्थिति, अनुपस्थिति अकिंचित्कर है। फिर भी वह पर्याय किस ज्ञेय के आकार है यह ज्ञान कराने के लिए ज्ञान का ज्ञेय के साथ सम्बन्ध बताया जाता है कि वह पर्याय कौन से ज्ञेय के आकारवाली है। ज्ञेय तो अनन्त हैं और छद्मस्थ सबका ज्ञान एक साथ कर नहीं सकता अत: इस ज्ञान की पर्याय ने किसको जाना है, यह बतलाने के लिए ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध बताना अनिवार्य हो जाता है।
अन्य अपेक्षा से भी विचार करें तो ज्ञान की पर्याय का कार्य तो मात्र जानना है। जानने योग्य पदार्थ अर्थात् ज्ञेय तो, हर समय चेतन, अचेतन दोनों ही जाति के अनन्तानन्त द्रव्य हैं । वे ज्ञेयद्रव्य तो उस जानने की पर्याय तक पहुँचते ही नहीं और न ज्ञान को प्रेरणा ही करते हैं कि तू हमको जान ।
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