SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( सुखी होने का उपाय भाग-४ समयसार के बन्ध अधिकार के कलश १६५ में इसी सिद्धान्त का निम्नप्रकार समर्थन किया है १०२ ) - " इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुकर्मों से ( कर्मयोग्य पुद्गलों से) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, वे (पूर्वोक्त) कारण भी उसके भले रहें और चेतन-अचेतन का घात भी भले हो, परन्तु अहो ! यह सम्यग्दृष्टि आत्मा रागादि को उपयोग भूमि में न लाता हुआ, केवल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ, किसी भी कारण से निश्चयतः बन्ध को प्राप्त नहीं होता । अहो ! देखो यह सम्यग्दर्शन की अद्भुत महिमा है ।" उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा का ज्ञान तो निरन्तर स्व तथा पर को एक साथ जानता हुआ ही प्रगट होता है । सिद्धान्त की अपेक्षा भी समझा जावे तो जगत का हरएक द्रव्य हर समय परिणमन करता हुआ विद्यमान है । उनमें ही स्वयं का आत्मद्रव्य भी है। अत: वह भी हर समय परिणमन करता हुआ विद्यमान है। उसके परिणमन में हर एक गुण का परिणमन होना भी, स्वाभाविक है। उन गुणों में एक ज्ञानगुण भी है। ज्ञान का कार्य तो सबको जानना है। ज्ञान का ऐसा स्वभाव नहीं है कि वह अनन्तगुणों में से किसी गुण को अथवा उसकी पर्याय को तो जाने और बाकी को छोड़ दे ? सभी द्रव्यों में प्रमेयत्व गुण होने से, ज्ञान तो उन के अंश को भी जाने बिना नहीं रह सकता ? ऐसी स्थिति में ज्ञान अपने ही द्रव्य का अथवा किसी अंश को अर्थात् पर्याय को न जाने, यह कैसे संभव हो सकता है ? अतः स्पष्ट है कि आत्मा के ज्ञान की हर एक पर्याय, स्व को जानते हुए ही पर को भी जानती है । मात्र अकेले पर को ही नहीं जान सकती । इस ही सिद्धान्त को नियमसार ग्रन्थ के शुद्धोपयोग अधिकार की अनेक गाथाओं द्वारा सिद्ध करते हुए गाथा १७९, टीका व श्लोकों में निष्कर्ष रूप से कहते हैं कि Jain Education International - " ज्ञान जीव से अभिन्न है इसलिए वह आत्मा को जानता है; यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह जीव से भिन्न सिद्ध होगा । " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001865
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1999
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy