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यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण )
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कि "मुझे क्रोध आया ” । मुझे शब्द ही अपने ज्ञान के अस्तित्व को सिद्ध कर रहा है। ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता तो क्रोध की सत्ता भी कैसे सिद्ध होती। इससे स्पष्ट है कि ज्ञानी - अज्ञानी सबको अव्यक्त रूप से अपने ज्ञान का अस्तित्व हर समय स्पष्ट भासता है ।
समयसार की गाथा १७-१८ की टीका के अन्तिम चरण में निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है
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“ परन्तु जब ऐसा अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा आबालवृद्ध सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादि बन्ध के वश पर (द्रव्यों) के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ अज्ञानी जन को, 'जो यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता।”
अज्ञानी को पर में एकत्व तथा रुचि होने से ज्ञान भी परलक्ष्यी बना रहता है; फलत: परज्ञेय ही प्रकाशित होता हुआ मालूम पड़ता है।
दूसरी अपेक्षा से भी विचार किया जावे तो जिस समय क्रोध उत्पन्न हुआ, उसी समय क्रोध को जानने वाली ज्ञानपर्याय भी तो उत्पन्न हुई है। आगे पीछे होना तो संभव भी नहीं है और दोनों का उत्पादन क्षेत्र भी आत्मा एक ही दिखता है, दोनों एक ही आत्मा की पर्यायें हैं। अज्ञानी दोनों का एक साथ होना स्वीकार भी करता है। फिर वह मात्र क्रोध का अस्तित्व तो मानता है और ज्ञान का अस्तित्व होते हुए भी उसकी ओर लक्ष्य भी नहीं करता ? स्पष्ट है कि अज्ञानी को अपने ज्ञानस्वभाव का, जो कि निरन्तर जानने का कार्य कर रहा है, उसका विश्वास ही नहीं हुआ। विश्वास नहीं होने से, स्व को जानने की रुचि एवं उत्कंठा का ही अभाव है। अत: अपने आत्मा के स्वाभाविक कार्य की ओर देखता भी नहीं । यही कारण है कि उसको मात्र पर का अर्थात् क्रोध का ही अस्तित्व दिखता है और उस ही को आत्मा का कार्य भी मानता है। ज्ञानी की श्रद्धा, अज्ञानी की श्रद्धा से विपरीत है। इसलिए उसको हर एक पर्याय में ज्ञान का ही उत्पाद दिखता है, क्रोध तो परज्ञेय के रूप में भासता है । ज्ञानी, अज्ञानी में सबसे बड़ा अन्तर यही रहता है ।
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