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निश्चयनय एवं व्यवहारनय )
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सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह ही है कि ज्ञातापने की बुद्धि तो वीतरागता की उत्पादक है एवं कर्तापने की बुद्धि मोह राग-द्वेष की उत्पादक होने से संसारवृद्धि का कारण है । यह ही दोनों मान्यताओं का अन्तर है।
निश्चयनय एवं व्यवहारनय
आगम अध्यात्म का अन्तर
आगम के द्वारा वस्तुस्वरूप समझने पर भी आत्मा में मोक्षमार्ग प्रगट करने के लिए निश्चयनय एवं व्यवहारनय का स्वरूप समझना आवश्यक है । वस्तुओं के जैसे स्वभाव हैं वह बतलाना आगम का उद्देश्य है, लेकिन आत्मोपलब्धि का मार्ग अध्यात्म के द्वारा ही प्राप्त होता है । संक्षेप में कहा जावे तो आगम तो वस्तुस्वरूप समझने के लिए बुद्धि को फैलाता है और अध्यात्म उन सबमें से बुद्धि को समेटकर आत्मसन्मुख करता है । वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा ५७ में अध्यात्म शब्द का अर्थ किया है
" अध्यात्म शब्द का अर्थ कहते हैं मिथ्यात्व, राग आदि समस्त विकल्पजाल के त्याग से स्वशुद्धात्मा में जो अनुष्ठान होता है, उसे अध्यात्म कहते हैं ।”
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इसप्रकार हमारा प्रयोजन तो अध्यात्म से ही सिद्ध होता है । अत: नय प्रकरण को अध्यात्म की मुख्यता से समझना चाहिये ।
आगम की शैली के तथा अध्यात्म की शैली के नय, उनके अभिप्राय एवं आपस में दोनों शैलियों के नयों का सामंजस्य तथा आत्मोपलब्धि में उन नयों का प्रयोग कैसे करना चाहिए आदि विषयों पर डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल ने परमभावप्रकाशक नयचक्र नामक पुस्तक के ३९१ पृष्ठों में बहुत विस्तार से चर्चा की है। आत्मार्थी को नय प्रकरण समझने के लिये उसका अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकरण में भी उक्त पुस्तक की सहायता ली गई है।
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