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( सुखी होने का उपाय भाग-३ ___“छहों द्रव्यों के कार्यों को मैं कर सकता हूँ" - अज्ञानी को ऐसा कर्तृत्व का अभिप्राय अनादि से चला आ रहा है। वह कभी सफल तो होता नहीं। बार-बार असफलता के कारण अत्यन्त दुखी बना रहता है। ऐसी कर्ताबुद्धि छुड़ाने के लिये कर्तापने की परिभाषा जिनवाणी में आती है कि “हरएक द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों का कर्ता है, पर एवं पर की पर्याय का कर्ता नहीं है क्योंकि कर्ता कर्म व्याप्य, व्यापक में ही होता है, पर्याय द्रव्य में व्याप्त होती है और द्रव्य उसका व्यापक होता है। इसप्रकार हर एक द्रव्य का अपनी पर्याय के साथ ही कर्ता कर्म संबंध होता हैं, पर के साथ किंचितमात्र भी नहीं। इसप्रकार पर में कर्तृत्व की मान्यता छुड़ाकर अपनी पर्याय के कर्तापने की स्थापना की। आचार्य महाराज का उद्देश्य तो जिस तिस प्रकार से वीतरागता प्राप्त कराने का
प्रश्न - इससे तो आप पर्याय के कर्तृत्व की स्थापना कर रहे हैं, ऐसा क्यों?
उत्तर - कर्तापने की मान्यता तो छोड़ने योग्य ही है लेकिन जो अज्ञानी अभी तक सारे जगत के कर्तृत्व का झूठा भार लेकर दुःखी था, उसकी वह मान्यता छुड़ाने के अभिप्राय से, अपने ही द्रव्य में मर्यादित करने के लिए उपरोक्त कथन है। इस श्रद्धा के द्वारा सारे जगत् से उपेक्षित होकर मात्र अपने ही द्रव्य में सीमित हो जाता है।
पर का कर्तृत्व छोड़कर अपनी पर्याय का कर्तृत्व स्वीकारने वाला जीव जब अपने प्रयोजन की मुख्यता से विचार करता है तो उसे शांति तो प्राप्त नहीं होती? तब आचार्य महाराज अपनी पर्याय का कर्तृत्व भी छुड़ाने के लिये आत्मा के यथार्थ स्वभाव की पहिचान कराकर, दूसरी अपेक्षा समझाकर अपनी पर्याय का भी कर्तृत्व छुड़ाते हैं।
दूसरी अपेक्षा है- “अभिप्रायपूर्वक करै सो कर्ता" । जैसे एक डॉक्टर ने मरीज की बीमारी मिटाने के अभिप्राय से उसका ऑपरेशन किया। ऑपरेशन करते समय ही मरीज की मृत्यु हो गई। इस स्थिति में क्या
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