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________________ अनुभूति में इन्द्रियज्ञान बाधक कैसे ? ) (८५ तो मात्र अकर्ता स्वभावी, निर्भार, परम वीतरागी ज्ञायक तत्त्व है, ऐसी श्रद्धा में प्रगट करना ही सच्चा पुरुषार्थ है । अनुभूति में इन्द्रियज्ञान बाधक कैसे ? इन्द्रियज्ञान एवं अतीन्द्रियज्ञान ज्ञान की क्रिया में इन्द्रिय अथवा अतीन्द्रिय ऐसे दो भेद हैं ही नहीं । ज्ञान तो ज्ञान ही है । वह आत्मा की क्रिया है और आत्मा के द्वारा ही होती है। इन्द्रियाँ तो अचेतन शरीर के अंग हैं। शरीर अचेतन, तो इन्द्रियाँ भी अचेतन ही हैं, उनमें चेतनता कहाँ से आवेगी । अतः इन्द्रियाँ तो ज्ञान की उत्पादक हो ही नहीं सकती । इन्द्रियज्ञान का अर्थ है, कि आत्मा का ज्ञान जो इन्द्रियों के माध्यम से कार्य करे। अतिन्द्रियज्ञान का अर्थ है कि जो ज्ञान इन्द्रियों का माध्यम नहीं लेकर सीधा अपने विषय का ज्ञान करले । जब ज्ञान द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत आत्मतत्व को विषय बनाता है, उस समय इन्द्रियों का माध्यम नहीं रहता । ज्ञान पर्याय सीधा बिना कोई माध्यम के अपने विषय का ज्ञान कर लेता है । इस ही कारण ऐसे ज्ञान का नाम अतिन्द्रियज्ञान है । जब ज्ञान स्वज्ञेय को छोड़कर परमुखापेक्षी होता है अर्थात् परलक्ष्यी होता है, उस समय वह ज्ञान अपने विषय को इन्द्रिय व मन के माध्यम से ही जान पाता है, सीधा विषय नहीं बना सकता । अत: परलक्ष्यी ज्ञान कैसा भी कितना भी हो, वह सब इन्द्रियज्ञान है 1 इन्द्रियज्ञान शब्द से ऐसा नहीं समझना कि इन्द्रियाँ उस ज्ञान की उत्पादक हैं, इस कारण उस ज्ञान को इन्द्रियज्ञान के नाम से बोला जाता है । इन्द्रियाँ तो मात्र माध्यम अर्थात् मध्य में पड़ जाती है । जैसे हमारे निवास से बाहर निकलते समय दरवाजे मध्य में पड़ते हैं । हम जब भी निवास से बाहर निकलेंगे, वे दरवाजे जरूर बीच में आवेंगे। उन दरवाजों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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