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अपनी बात )
अपनी बात
प्रस्तुत पुस्तक “सुखी होने का उपाय” भाग ३ है । इसके पूर्व, प्रथम भाग अप्रेल सन् १९९० में प्रकाशित हुआ था । उसके पश्चात् द्वितीय भाग दिसम्बर सन् १९९१ में प्रकाशित हो सका। अभी यह तृतीय भाग हो रहा है।
मैंने ये सभी रचानाएं मात्र अपने उपयोग को सूक्ष्म एवं एकाग्र कर जिनवाणी में ही रमाये रखने की दृष्टि से की है। इसी कारण इनके सभी प्रकरणों की रचना अलग-अलग समय पर, जब-जब उपयोग खाली हो सका, टुकड़ों-टुकड़ों में की गई है। फलतः इसमें पुनरावृत्ति भी हुई है । भाषा साहित्य का ज्ञान नहीं होने से वाक्य - विन्यास तथा वाक्यों का जोड़-तोड़ भी सही नहीं है। अतः पाठकगणों को इस दृष्टि से इसमें कमी लगेगी । इसके अतिरिक्त भी अन्य कमियों को गौण करते हुये पाठकगण इस पुस्तक द्वारा प्रतिपाद्य विषय पर लक्ष्य रखते हुये अध्ययन करेंगे तो मैं मेरा श्रम सार्थक समझँगा ।
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उपर्युक्त पुस्तक के प्रथम भाग में, छह द्रव्यों के अनन्तानन्त द्रव्यों की भीड़-भाड़ में खोई हुई हमारी स्वयं की निजआत्मा की, अनेक उपायों के द्वारा भिन्नता पहिचानकर, अपनी कल्पना से माने हुए अन्य पदार्थों के साथ सम्बन्धों को तोड़कर, अपनी स्वतंत्र सत्ता स्वीकारते हुये, अपने-आप में श्रद्धा जागृत करने का निम्न उपाय बताया था
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“जगत् के सभी द्रव्य उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तंसत् हैं” उन ही में, मैं भी स्वयं एक सत् हूँ। मेरी सत्ता मेरे स्वचतुष्टय में है अत: मेरी सत्ता में किसी का प्रवेश, हस्तक्षेप है ही नहीं एवम् हो सकता भी नहीं । ऐसी स्थिति में मुझे भी जगत् के किसी भी द्रव्य के कार्यों में किसी प्रकार का भी हस्तक्षेप करने का अधिकार कैसे हो सकता है ? इसप्रकार जगत् के
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