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________________ ५०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ पर्यायमें भी, स्व को भूलकर पर को अपना मानकर एकत्व करने से नवीन-नवीन उत्पन्न होते हैं । विकार को अपना मानकर एकत्व करना ही अज्ञानी का मिथ्या अभिप्राय है, संसार का बीज है। तात्पर्य यह है कि आत्मार्थी को सर्वप्रथम सिद्धस्वभावी ध्रुवतत्त्व के अतिरिक्त सबमें अपनेपने की मान्यता का अभाव करना चाहिए। पर्यायगत भावों में परपना उत्पन्न होते ही विकार का नाश होना प्रारम्भ हो जाता है। कषाय मंदता का कितना भी प्रयास किया जावे तो भी पर में अपनेपने की मान्यता का अभाव हुए बिना रागादि का अभाव होना प्रारम्भ ही नहीं होगा। क्या ध्रुव की श्रद्धा से पर्यायें शुद्ध ही होंगी ? ऐसा नहीं है, ध्रुव की श्रद्धा हो जाने पर ज्ञानी को भी पर्याय विकारी उत्पन्न होती है और उसका फल सुख-दुख रूपी आकुलता अवश्य भोगना पड़ता है। रागादि भावों का आत्यान्तिक अभाव करे बिना आत्मा को शान्ति कभी नहीं मिल सकती । आत्मा के अनन्त गुणों में विकारी कुछ ही गुण होते हैं उनमें से यहाँ मात्र चारित्र की पर्याय की चर्चा करेंगे। चारित्र गुण की पर्याय शुद्ध भी होती है और अशुद्ध भी। अशुद्ध पर्याय के दो भेद हैं - शुभ और अशुभ । अशुभ तो अशुद्ध पर्याय है ही लेकिन शुभ भी अशुद्ध पर्याय ही है। दोनों ही बंध के कारण होने से वास्तव में दोनों ही हेय अर्थात् अभाव करने योग्य हैं, ऐसा नि:शंक होकर स्वीकार करना चाहिए। आत्मा में जब तक रंचमात्र भी अशुद्ध पर्याय रहेगी आत्मा मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा स्वीकार करे बिना मोक्षमार्ग का प्रारम्भ ही नहीं होगा अपितु स्वछन्द वृत्ति हो जावेगी। आत्मा (ध्रुव तत्त्व) में रागादि है नहीं, रागादि पर होने से मेरे नहीं हैं आदि विवेचन पहले आया है उक्त कथन तो अपनेपन का अभाव करने मात्र के लिए था, जब तक पर्यायों में किंचित् भी अशुद्धि रहेगी, आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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