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( सुखी होने का उपाय भागे - ३
आत्मा के दर्शन करके निर्विकल्पता प्राप्त कर श्रद्धा ने अपने त्रिकाली ध्रुव भाव में अपनापन स्थापन कर लिया । स्व का ज्ञान स्व के रूप में सम्यक् होकर, ध्रुव के अतिरिक्त पर्याय सहित जो भी बाकी रहे सबमें परपना आ जाने से वे सब ज्ञान में सहज रूप से गौणरूप पररूप वर्तते रहते हैं । इसप्रकार के जानने से, उनके प्रति एकत्व नहीं हो पाता, फलत: मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी राग उत्पन्न नहीं हो पाता । ज्ञानी को भी जो राग उत्पन्न हो जाता है, वह पर को जानने से नहीं होता, अपितु ज्ञानी की निर्बलता (अचारित्रभाव) के कारण होता है। ज्ञान का स्वभाव तो स्व एवं पर को एक साथ जानना है । वह सहज रूप से स्व को स्व के रूप में तथा पर को पर के रूप में जानता रहता है । ज्ञानी का चारित्र गुण भी सम्यक् हो जाने से स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होकर अनन्तानुबन्धी का अभाव हो जाता है तथा निराकुलतारूपी आनन्द भी आंशिक प्रगट हो जाता है। इसके अतिरिक्त आत्मा की अनन्त शक्तियाँ भी आंशिक शुद्ध होकर कार्यशील हो जाती है । तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान की आत्मा को प्रगट ज्ञानआनन्द का नमूना (बानगी) अनुभव में आ जाता है। ऐसा आत्मा ज्ञानी - सम्यग्दृष्टि होकर मोक्षमार्ग का साधक बन जाता है। ऐसे साधक का पुरुषार्थं भी अरहन्त दशा प्राप्त करने की ओर उग्र हो जाता है । यह है अरहन्त भगवान के द्रव्य-गुण- पर्याय को जानकर अपने आत्मा को जानने की उपलब्धि । उनकी प्रगट दशा के द्वारा अपने ध्रुव की सामर्थ्य का विश्वास जाग्रत होकर ध्रुव में अपनापन आकर' पर्याय एवं पर्यायगत भावों तथा संयोगों से अपनापन छोड़ना नही पड़ता, वरन् सहज ही छूट जाता है ।
प्रश्न पर्याय भी तो उसी सत् का अंश है, उसको भी मेरे से भिन्न क्यों माना जाना चाहिए ?
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उत्तर
इसप्रकार की शंका का समाधान पहले किया जा चुका है, फिर भी पुन: स्पष्ट करते हैं । यह तो सबके अनुभव में है कि मैं आत्मा
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