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________________ अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) ( ४५ धौव्यंयुक्तंसत्' के द्वारा ध्रुव रहते हुए भी परिवर्तनशील हैं। सभी 'गुणपर्ययवद्द्रव्यं' के अनुसार, गुण तो अपने-अपने द्रव्य में एक जैसे ही अनन्त की संख्या में सदैव ध्रुव रहकर भी उत्पाद व्यय करते रहते हैं । उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार स्पष्ट समझ में आता है कि मेरी आत्मा का ध्रुव भाव और अरहन्त के ध्रुव भाव में कोई अन्तर नहीं है । उनके ध्रुव भाव की जो शक्तियाँ विकसित होकर प्रकाश में आईं हैं अर्थात् प्रगट हुईं हैं, वे सब शक्तियाँ उनके ध्रुव में सदैव विद्यमान थीं ओर वही प्रगट हुईं हैं। इससे स्पष्ट है कि वे सभी शक्तियाँ (गुण) मेरे ध्रुवतत्त्व में भी विद्यमान थे और अभी भी विद्यमान हैं । ध्रुव की अपेक्षा और गुणों की अपेक्षा उनकी आत्मा में और मेरी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है तात्पर्य यह है कि उनका ध्रुव और मेरा ध्रुव दोनों एक सरीखे ही हैं। अर्थात् ध्रुव अपेक्षा तो मैं वर्तमान में ही सिद्ध हूँ । लेकिन जब तक वे शक्तियाँ विकसित होकर प्रगट न हों तब तक उनका लाभ आत्मा को नहीं मिलता, जैसे खान में पड़ा हुआ सोना जब तक प्रगट होकर प्रकाश में नहीं आवे, उसका कोई मूल्य नहीं किया जाता। इसलिए आत्मार्थी का कर्तव्य है कि उन शक्तियों के विकास करने का मार्ग समझकर पूर्ण पुरुषार्थ के साथ, बाधक कारणों को दूर कर शक्तियों का पूर्ण विकास करे । I ध्रुव की सामर्थ्य भगवान अरहन्त में जो सामर्थ्य वर्तमान पर्याय में प्रगट होकर प्रकाश में आई हैं, वह ध्रुव में विद्यमान थीं और वो सब वर्तमान में मेरे ध्रुव में भी विद्यमान हैं। अतः भगवान अरहन्त को द्रव्य-गुण- पर्याय से समझने पर हमको हमारे ध्रुव भाव की सामर्थ्य बहुत सरलता से समझ में आ जाती है । भगवान अरहन्त की आत्मा का ज्ञान पूर्ण विकसित होकर, सर्वज्ञता को प्राप्त हो गया। साथ ही आकुलता के उत्पादक कारण राग, द्वेष आदि आत्यन्तिक अभाव होकर पूर्ण वीतरागी हो गये। सभी प्रकार की इच्छाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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