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भगवान अरहन्त की सर्वज्ञता)
(३१ भी क्या चक्षु को स्वयं अपने अस्तित्व का जानना नहीं रहता? नहीं, स्व का जानना भी बना रहता है । इसीप्रकार ज्ञान भी अपने आप में रहते हुए परज्ञेयों के पास पहुंचे बिना तथा परज्ञेय भी ज्ञान में प्रवेश किये बिना ही, ज्ञान अपने-आप को जानते हुए उन ज्ञेयों को भी दर्पण के समान जान लेता है। जैसे दर्पण परज्ञेयों को दिखलाने के साथ-साथ अपने अस्तित्व का भी ज्ञान कराये बिना नहीं रहता। जैसे आँख के सन्मुख अग्नि आने पर जिसप्रकार चक्षु गर्म नहीं हो जाती तथा बर्फ के जानने पर ठंडी नहीं हो जाती, इसीप्रकार दर्पण के सामने कोई अग्नि दिखाई देती हो तो दर्पण गर्म नहीं हो जाता और बर्फ दिखाई देने पर दर्पण ठंडा नहीं हो जाता। इसीप्रकार आत्मा का ज्ञान भी परज्ञेयों को जानते समय, आंख एवं दर्पण के समान, ज्ञेय द्रव्यों से अत्यन्त भिन्न रहने के कारण, जानने में आते समय किंचित्मात्र भी प्रभावित नहीं होता और न उनके सन्मुख होकर जानना पड़ता है।
इसप्रकार ज्ञान का स्वपरप्रकाशक स्वभाव होने से अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए, ज्ञान की पर्याय स्व तथा पर को एक साथ जान लेती है। जैसे जब-जब मुझमें क्रोध आता है, उस समय मेरी अन्तर्ध्वनि निकलती है कि “मुझे क्रोध आया" । इस पर, विचार करें तो क्रोध का ज्ञान होने के पूर्व "मुझे" शब्द किसका अस्तित्व सिद्ध करता है ? अपनी आत्मा को ही बताता है। इस ही से सिद्ध होता है कि आवाल-गोपाल सबका ज्ञान स्वपरप्रकाशक ही है और सभी को एकसाथ दोनों का ज्ञान होता है। लेकिन ऐसे स्वपर का एकसाथ ज्ञान होने पर भी, ज्ञानी को स्व की ओर की रुचि अर्थात् अपनापन होता है उसको, स्व मुख्य होकर स्व का ज्ञान होता हुआ प्रतिभासित होता है तथा उस समय पर का प्रकाशन गौण बना रहता है। लेकिन अज्ञानी को तो पर के प्रति रुचि (अपनापन) होता है इस कारण उसको पर मुख्य होकर मात्र पर का ज्ञान होता हुआ ही प्रतिभासित होता है, स्व की तो उसको जानकारी ही नहीं है, फलत:
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