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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
इसप्रकार सिद्ध होता है कि ज्ञान का स्वभाव स्व पर को जानना
ही है ।
ज्ञान की स्व पर को जानने की प्रक्रिया
उपरोक्त प्रक्रिया को समझने के लिये हमको ज्ञान श्रद्धान में यह स्पष्ट होना चाहिये कि “ जगत के हर एक द्रव्य अपने स्वचतुष्टय में सीमित रहते हुए ही परिणमते हैं। आत्मा भी एक द्रव्य है, अत: उसका जो भी कार्य होगा वह अपने स्वक्षेत्र अर्थात् असंख्य प्रदेशों में ही होगा और कार्य को पर्याय में अपने स्वक्षेत्र में रहते हुये ही अनवरत रूप से करता रहेगा। उसमें किसी का किंचित्मात्र हस्तक्षेप हो ही नहीं सकता ।" उसीप्रकार मेरे आत्मा का ज्ञानगुण भी अपने स्वक्षेत्र में रहकर ही उत्पाद काल में स्वतंत्र रूप से अपनी योग्यतानुसार जानने का कार्य करता रहेगा । निष्कर्ष यह है कि मेरी आत्मा का ज्ञानगुण स्वपरप्रकाशकस्वभावी है, उसकी प्रत्येक पर्याय स्वक्षेत्र में रहते हुए ही स्वसन्मुखतापूर्वक स्व और पर दोनों का ज्ञान करती ही रहती है । परक्षेत्र में पहुँचकर कार्य कर सकना संभव ही नहीं है ।
प्रश्न स्वज्ञेय का ज्ञान तो स्वसन्मुखतापूर्वक हो सकता है, लेकिन परज्ञेयों का ज्ञान परसन्मुखता के बिना कैसे होगा ?
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उत्तर ज्ञान का स्वभाव ही एक अचिंत्य आश्चर्यकारी है । उस ज्ञान में जगत् के समस्त पदार्थ ज्ञेय सन्मुख हुए बिना ही स्वतः प्रतिभासित होते हैं। क्योंकि सभी द्रव्यों में प्रमेयत्व अर्थात ज्ञेयत्व स्वभाव है । अत: सभी द्रव्य अपने-अपने स्वक्षेत्र में रहते हुए ही हर एक के ज्ञान के ज्ञेय बनने की योग्यता रखते हैं। यही कारण है कि ज्ञेयों को ज्ञान के पास नहीं जाना पड़ता एवं ज्ञान को भी ज्ञेयों के पास नहीं आना पड़ता, आंख (चक्षु) के अनुसार । जैसे आंख (चक्षु) अपने आप में रहते हुए, ज्ञेय के पास गये बिना तथा ज्ञेय भी उसके पास आये बिना, अपने-अपने में रहते हुए भी, आंख उन पदार्थों को जान लेती है। लेकिन पर को जानते समय
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