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________________ ९५ से १०९ ९५ १०० १०१ १०२ १०४ १०४ १०६ निश्चयनय एवं व्यवहारनय आगम अध्यात्म का अंतर द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, निश्चयव्यवहार के हेतु हैं निश्चय व्यवहार का स्वरूप उपचार का स्वरूप निश्चय का विषय ही आश्रय करने योग्य व्यवहार के कथन की उपयोगिता व्यवहारनय प्रयोजनभूत कैसे ? मोक्षमार्ग दो मानने का निषेध परिणति (परिणमन) नय नहीं है निश्चयनय व्यवहारनय का निषेधक कैसे है ? निश्चय व्यवहार प्रकरण का उपसंहार आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? मेरी आत्मा अरहंत के समान है विकारी पर्याय का क्षेत्र आत्मा आत्मा का द्रव्य तो अरहंत समान ही है चेतन ही अन्वय रूप से प्रसरता है अहंपना स्थापन किसमें करना उपर्युक्त मान्यता से लाभ अरहंत के ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा का ज्ञान अरहंत जैसा आत्मा मानने का लाभ अरहंत जैसा मानने में पर्याय बाधक रागादि की उत्पत्ति का कारण निष्कर्ष उपसंहार १०७ ११० से १३२ ११० ११४ ११६ ११९ ११९ १२० १२२ १२३ १२५ १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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