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________________ १३० ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ को पुष्ट किया है। ऐसा निर्णय करने की विधि प्रस्तुत पुस्तक में बताई गई है ! निर्णय करने के लिये महत्वपूर्ण विषय है कि हमारे निर्णय का विषय क्या हो ? अपनी आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझना ही एकमात्र निर्णय का विषय है । अतः आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझने के लिये भगवान अरहंत की आत्मा को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत कर, आत्मा का स्वरूप समझाने वाली प्रवचनसार की गाथा ८० के माध्यम से, आत्मा के स्वरूप को समझने की विधि इस पुस्तक में बताई गई है। उसके द्वारा विस्तारपूर्वक आत्मा का स्वरूप समझाया गया है । मेरी आत्मा त्रिकाल अनंतगुणों के सामर्थ्य से परिपूर्ण परम वीतरागी अरहंत भगवान के समान है। भगवान अरहंत का ज्ञान अपने आत्मा में बसे अनंतगुणों के समुदाय रूप निज आत्मा को तन्मय होकर जानता है, साथ ही जगत के अन्य पदार्थों को, तन्मय हुए बिना मात्र परज्ञेय के रूप में जानता है । परज्ञेयों को भी स्व में नास्ति के रूप में जानता है । भगवान अरहंत की आत्मा परज्ञेयों के ज्ञान के समय उनके प्रति किंचित् मात्र भी आकर्षित नहीं होती। पण्डित बनारसीदासजी ने नाटक समयसार के संवर द्वार के सवैया २ में कहा है कि " आतमको अहित अध्यातमरहित ऐसौ, आस्रव महातम अखंड अंडवत है। arat विसतार गिलिबेकौ परगट भयो, ब्रह्मंडकौ विकासी ब्रह्मंडवत है ॥ जामैं सब रूप जो सब मैं सबरूपसौ पै, पदार्थों साह ग्यानभान सुद्ध संवरका भेष धरे, सबनिस अलिप्त आकास-खंडवत है।. w अर्थ “जो आत्मा का घातक है और आत्म-अनुभव से रहित है ऐसा आस्रवरूप महाअंधकार अखंड अंडा के समान जगत के सब जीवों को घेरे हुए है । उसको नष्ट करने के लिये त्रिजगत् विकासी सूर्य I Jain Education International ताकी रुचि-रेखक हमारी दंडवत है ॥ २ ॥ * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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