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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (१२९ द्वारा तत्त्व निर्णय की आवश्यकता सिद्ध की है। सात तत्त्वों के स्वरूप का यथार्थ मर्म समझाकर, उनमें एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व तो मैं हूँ, तथा अन्य जितने भी पदार्थ रह गये वे सब मेरे लिये ज्ञेयरूप अजीव तत्त्व हैं, तथा मेरी ही पर्यायों में आस्रव एवं बंध तो हेय तत्त्व है तथा संवर निर्जरा उपादेय तत्त्व है तथा मोक्ष तत्त्व तो परमउपादेय तत्त्व है आदि-आदि कथनों के माध्यम से अपनी पर्यायों में छुपी आत्मज्योति को भिन्न समझने का मार्ग बताया गया है। जगत के समस्त पदार्थों, तथा मेरे अंदर होने वाली अपनी ही पर्यायों को, स्थाई ध्रुवभाव में अहंपना स्थापन कराकर, सबसे ज्ञेयज्ञायक संबंध के यथार्थज्ञान द्वारा, भेदज्ञान कराया गया है। साथ ही निश्चय के साथ यथार्थ व्यवहार रहता ही है, मोक्षमार्ग में दोनों की अनिवार्यता के साथ-साथ विरोधीपना किस प्रकार है आदि-आदि अनेक विषयों के द्वारा यथार्थ ज्ञान कराकर, अपने त्रिकाली ज्ञायक भाव में अहंबुद्धि किस प्रकार जाग्रत हो ऐसी चर्चा की गई है। प्रस्तुत भाग-३ में आपने भली प्रकार अध्ययन किया है कि आत्मानुभूति प्राप्त करने का अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरुषार्थ, एक यथार्थ निर्णय ही है। पण्डित टोडरमलजी ने भी कहा है कि “मोक्षार्थी का कर्तव्य तो एकमात्र तत्त्व निर्णय का अभ्यास ही है” करणलब्धि के पूर्व पुरुषार्थ भी यही होता है कि “उस तत्त्व निर्णय में उपयोग को तदरूप होकर लगाये”, “उसके फलस्वरूप उसको आत्मानुभूति प्राप्त होगी।" ऐसा निर्देश पण्डितजी साहब का है । उक्त कथन मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिए यथार्थ निर्णय की महत्ता एवं सर्वोत्कृष्ट आवश्यकता सिद्ध करता है। यथार्थ निर्णय में ही ऐसा सामर्थ्य है कि उसके फलस्वरूप श्रद्धा में यथार्थता प्रकट हो सकती है। अत: जैसे भी बने वैसे आत्मार्थी को अपने आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय कर त्रिकालीभाव में “यह ही मैं हूँ" ऐसा दृढ़तम विश्वास प्रकट करना चाहिये । “अयिकथमपिमृत्वा तत्व कौतुहलीसन्” अर्थात “किसी भी प्रकार, मरकर भी एक बार तत्त्व को पहिचानने का कोतुहली तो बन” आदि-आदि के कथनों से आचार्य ने इस ही तथ्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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