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________________ सुखी होने का उपाय) (52 की पद्धति है, लेकिन अभी इस मार्ग पर चलकर स्वजन रूपी आत्मद्रव्य से समागम अर्थात् मिलन करने का पुरुषार्थ तो बाकी ही रहता है। विशेष समझने योग्य बात यह है कि उपर्युक्त दृष्टान्त में तो मार्ग समझ लेने पर भी स्वजन को खोजने के लिए अनेक प्रकार की पराधीनता भी है, लेकिन सिद्धांत में ऐसा नहीं है। आत्मा को प्राप्त करने का मार्ग यथार्थ समझ में आने पर स्व आत्मा को प्राप्त करना अत्यन्त सरल स्वाधीन है, कारण स्वआत्मा तो स्व का द्रव्य ही है, कहीं बाहर से लाना नहीं है और जिसको मिलन करना है, वह स्व की ही पर्याय है, वह भी कोई अन्य नहीं है, द्रव्यपर्याय दोनों के एक ही प्रदेश है अर्थात् द्रव्य भी एक, क्षेत्र भी एक, काल भी एक और भाव भी एक के ही है इसमें कहीं किसी अन्य का कुछ भी तो नहीं है, बाहर से कुछ लाना भी नहीं है, अतः अत्यन्त स्वाधीन है, पराधीनता का अंश भी नहीं है, फिर उसको प्राप्त करना कठिन कैसे हो सकता है ? अतः अत्यन्त सरल है। लेकिन पर्याय ने अपना मुख आत्मा की ओर से विमुख होकर परज्ञेयों में अपनापन मानकर परज्ञेयों के सन्मुख कर रखा है। ऐसी स्थिति में वह पर्याय स्वआत्मा का मिलन कैसे कर सकती है ? जिसकी ओर सन्मुखता होगी तो मिलन भी तो उस ही से हो सकता है, जिधर पीठ होगी उससे सम्मिलन कैसे संभव हो सकता है? यह एक ही कारण है कि अनादिकाल से इस स्व आत्मा रूपी स्वद्रव्य की, स्वयं की पर्याय ही स्वयं अपने ही द्रव्य से सम्मिलन कर आनन्द की अनुभूति नहीं कर सकी। उपर्युक्त विचार-विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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