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________________ (46 सुखी होने का उपाय) मेरी आत्मा के लिए अप्रयोजनभूत होते हुए भी मेरे ज्ञान में ज्ञेय के रूप में उपस्थित तो होते ही हैं और होंगे भी, क्योंकि जिसकी जगत् में सत्ता है, वह ज्ञान में ज्ञेय के रूप में आवेगा ही, उसके अस्तित्व का प्रकाशन भी तो ज्ञान से ही होता है। ज्ञेयों के ज्ञान में आते ही अगर उनको स्व और पर के विभागीकरण पूर्वक जाने तो मेरी समस्या हल हो सकती है, क्योंकि मेरे लिए अनुसंधान करने योग्य, समझने योग्य अनंतानंत ज्ञेय तत्त्वों में से मात्र एक स्वज्ञेय रूप मेरा आत्मा ही रह जाता है। अकेली अपनी आत्मा के अतिरिक्त अनंतानंत ज्ञेयतत्त्व सारे के सारे परज्ञेय तत्त्व के रूप में रह जाते है। इसप्रकार हमारी एक बहुत बड़ी उलझन कि इन अनंतानंत ज्ञेयतत्त्वों को हम कैसे समझेंगे ? वह हल हो जाती है और हमारी आत्मा का सम्पूर्ण पुरुषार्थ जो उन परज्ञेयों को जो अनेक है, उनको अपना मानकर अभी तक सबमें मारा-मारा फिरता था, आकुलित रहता था, दुःखी होता था। उसको उन समस्त ज्ञेयों के प्रति परपना आते ही अत्यन्त विश्राम प्राप्त होता है तथा सम्पूर्ण पुरूषार्थ अपने आत्मा के अनुसंधान में ही लगाने की रूचि जाग्रत हो जाती है। साथ ही परज्ञेयों के प्रति उपेक्षाबुद्धि भी हुए बिना नहीं रहती। अतः उपर्युक्त ज्ञेयतत्त्वों की स्थिति समझ लेने से यही स्पष्ट समझ में आता है,- निर्णय में आता है कि मेरे को मेरी सुख शान्ति प्राप्त करने के लिए, जो भी करना हो वह सब एक मात्र मेरे स्व आत्मा-स्वज्ञेय में ही सम्भव है, अतः मुझे तो प्रयोजनभूत, समस्त ज्ञेयों में से स्व और पर के भेद द्वारा स्वज्ञेय को अनुसंधान के लिए एवं पर ज्ञेयों के प्रति उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न करने के लिए ही समझना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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