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________________ 45) (सुखी होने का उपाय के लिए उस समस्त ज्ञेयतत्त्व को स्व तथा पर ऐसे दो विभागों में विभक्त कर समझना अति आवश्यक हो जाता है। क्योंकि प्राणी मात्र की सामान्य सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है कि जिसको अपना मान लेता है, उसकी प्राणपन से रक्षा करे बिना नहीं रहता, पूर्ण सर्वस्व समर्पण कर देता है और जिसको पर मानता है, उसका सर्वनाश हो जाने पर भी किचित् भी विचलित नहीं होता। इस कारण हम भी अगर समस्त ज्ञेय-तत्त्वों को स्व तथा पर ऐसे दो भागों में विभक्त कर लेते हैं, तो हमारी एक बहुत बड़ी उलझन समाप्त हो जाती है। प्रवचनसार गाथा ९० की टीका में कहा भी है कि "मोह का क्षय करने के प्रति प्रवण अभिमुख बुद्धिवाले बुधजन इस जगत में आगम में कथित अनन्त गुणों में से किन्हीं गुणों के द्वारा जो गुण अन्य के साथ योग रहित होने से असाधारणता धारण करके विशेषत्व को प्राप्त हुये हैं, उनके द्वारा अनन्त द्रव्य परम्परा में स्व-पर के विवेक को प्राप्त करो। __"पं. टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ७८ में कहा है कि "प्रथम तो दुःख दूर करने में आपा-पर का ज्ञान अवश्य होना चाहिये। क्योंकि अनंतानंत ज्ञेयतत्त्वों में से रक्षा करने के लिए अर्थात् आकुलता रूपी दुःख की निवृत्ति कर सुखी होने के लिए मात्र एक स्वज्ञेय का ही अनुसंधान करना है, समझना है तथा कुछ भी करना है, मात्र एक स्वज्ञेय में ही करना है। बाकी बचे सारे के सारे अनंतानंत ज्ञेय-पदार्थ परज्ञेय रूप में रह जाने से मेरे लिए वे सब मात्र उपेक्षणीय ही रह जायेंगे। वे सब ज्ञेय तो है लेकिन पर होने के कारण वे मेरा न तो हित ही कर सकते है और न कुछ अहित ही कर सकते है, अतः . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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