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________________ सुखी होने का उपाय) (40 पृष्ठ २८४ "इसीप्रकार अन्य व्यवहार का निषेध किया हो उसे जानकर प्रमादी नहीं होना। ऐसा जानना कि जो केवल व्यवहार साधन में ही मग्न हैं, उनको निश्चय रुचि कराने के अर्थ व्यवहार को हीन बताया है।" - पृष्ठ २८४ "तथा उन्हीं शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि के विषय भोगादिक को बन्ध का कारण ही नहीं कहा, निर्जरा का कारण कहा, परन्तु यहां भोगों का उपादेयपना नहीं जान लेना, यहां इस कथन का इतना ही प्रयोजन है कि देखो, सम्यक्त्व की महिमा ? जिसके बल से भोग भी गुण ( अनन्त संसार के बैध) को नहीं कर सकते हैं। " - पृष्ठ २८४ " तथा द्रव्यानुयोग में भी चरणानुयोगवत् ग्रहण - त्याग कराने का प्रयोजन है, इसलिये छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा ही वहां कथन करते हैं। इतना विशेष है कि चरणानुयोग में तो बाह्यक्रिया की मुख्यता से वर्णन करते हैं, द्रव्यानुयोग में आत्मपरिणामों की मुख्यता से निरूपण करते है। " पृष्ठ २८६ " द्रव्यानुयोग के कथन की विधि करणानुयोग से मिलाना चाहें तो कहीं तो मिलती है, कहीं नहीं मिलती। जिसप्रकार यथाख्यान चारित्र होने पर तो दोनों अपेक्षा शुद्धोपयोग है, परन्तु निचली दशा में द्रव्यानुयोग अपेक्षा से तो कदाचित् शुद्धोपयोग होता है, परन्तु करणानुयोग अपेक्षा से सदाकाल कषाय अंश के सद्भाव से शुद्धोपयोग नहीं है, इसीप्रकार अन्य कथन जान लेना " " Jain Education International इसके अतिरिक्त भी चारों अनुयोगों के अभ्यास करने में हर स्थान पर, हर एक कथन के समझने में कैसी-कैसी सावधानी रखनी चाहिये, आदि-आदि अनेक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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