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सुखी होने का उपाय)
(36 उपर्युक्त समस्त कथन से स्पष्टरुप से समझ में आता है कि यथार्थ निर्णय करने के लिये (प्रतीति करने के लिये) तो सर्वप्रथम द्रव्यानुयोग का अभ्यास ही कार्यकारी है।
द्रव्यानुयोग के अभ्यास द्वारा अपनी परिणति में जैसे-जैसे वीतरागता बढ़ती जाती है, उसी के अनुसार अंतरंग व बाह्य आचरण भी कैसा होना चाहिये? इसकी जानकारी एवं यथायोग्य आचरण के लिये चरणानुयोग का अभ्यास भी आवश्यक है। तथा अन्य दोनों अनुयोग प्रथमानुयोग, करणानुयोग भी अपने उपयोग को अशुभ में जाने से रोकने के लिये, उपयोग को आत्मा के सम्बन्ध में रमाने के लिये तथा श्रद्धान को दृढ़ करने के लिये यथासमय उपयोगी हैं।
पद्धति प्रथमानुयोग- मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २७१ "प्रथमानुयोग में जो मूल कथाएं हैं; वे तो जैसी है वैसी ही निरूपित करते हैं। तथा उनमें प्रसंगोपात्त व्याख्यान होता है, वह कोई तो ज्यों का त्यों होता है; कोई के विचारानुसार होता है, परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता। . पृष्ठ २७४ "कितने ही पुरुषों ने पुत्रादिक की प्राप्ति के अर्थ अथवा रोग कष्टादि दूर करने के अर्थ चैत्यालय पूजनादि कार्य किये, स्तोत्रादि किये, नमस्कार मन्त्र-स्मरण किया, परन्तु ऐसा करने से तो निःकांक्षित गुण का अभाव होता है, निदान बन्ध नामक आर्तध्यान होता है, पाप ही का प्रयोजन, अन्तरंग में है, इसलिये पाप ही का बन्ध होता है। परन्तु मोहित होकर भी जो बहुत पापबन्ध का कारण कुदेवादि का तो पूजनादि नहीं किया, इतना उसका गुणग्रहण करके उसकी प्रशंसा करते है। इस छल से औरों
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